Author: Akshat Vyas

श्री गणेश जन्मोत्सव

गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम् । उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम् ।।

भाद्रपद शुक्ल चतुर्थीको मध्याह्नके समय विघ्नविनायक

भगवान् गणेशका जन्म हुआ था। अतः यह तिथि मध्याह्रव्यापिनी लेनी चाहिये। इस दिन रविवार अथवा मंगलवार हो तो प्रशस्त है। गणेशजी हिन्दुओंके प्रथम पूज्य देवता हैं। सनातन धर्मानुयायी स्मार्तोंके पञ्चदेवताओंमें गणेशजी प्रमुख हैं। हिन्दुओंके घरमें चाहे जैसी पूजा या क्रियाकर्म हो, सर्वप्रथम श्रीगणेशजीका आवाहन और पूजन किया जाता है। शुभ कार्योंमें गणेशकी स्तुतिका अत्यन्त महत्त्व माना गया है। गणेशजी विघ्नोंको दूर करनेवाले देवता हैं। इनका मुख हाथीका, उदर लम्बा तथा शेष शरीर मनुष्यके समान है। मोदक इन्हें विशेष प्रिय है। बंगालकी दुर्गापूजाकी तरह महाराष्ट्रमें गणेशपूजा एक राष्ट्रिय पर्वके रूपमें प्रतिष्ठित है।

कैसे करें गणेश चतुर्थी व्रत?

गणेशचतुर्थीके दिन नक्तव्रतका विधान है। अतः भोजन सायंकाल करना चाहिये तथापि पूजा यथासम्भव मध्याह्नमें ही करनी चाहिये, क्योंकि –

पूजाव्रतेषु सर्वेषु मध्याह्रव्यापिनी तिथिः । अर्थात् सभी पूजा-व्रतोंमें मध्याह्रव्यापिनी तिथि लेनी चाहिये।

भाद्रपद शुक्लपक्षकी चतुर्थी तिथिको प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्मसे निवृत्त होकर अपनी शक्तिके अनुसार सोने, चाँदी, ताँबे, मिट्टी, पीतल अथवा गोबरसे निर्मित गणेशकी प्रतिमा बनाये या बनी हुई प्रतिमाका पुराणोंमें वर्णित गणेशजीके गजानन, लम्बोदरस्वरूपका ध्यान करे और अक्षत- पुष्प लेकर निम्न संकल्प करे-

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः अद्य दक्षिणायने सूर्ये वर्षर्तों भाद्रपदमासे शुक्लपक्षे गणेशचतुर्थ्यां तिथौ अमुकगोत्रोऽमुकशर्मा / वर्मा / गुप्तोऽहं विद्याऽऽरोग्यपुत्रधनप्राप्तिपूर्वकं सपरिवारस्य सर्वसंकटनिवारणार्थं श्रीगणपतिप्रसादसिद्धये चतुर्थीव्रताङ्गत्वेन श्रीगणपतिदेवस्य यथालब्धोपचारैः पूजनं करिष्ये। मम हाथमें लिये हुए अक्षत-पुष्प इत्यादि गणेशजीके पास छोड़ दे।

इस प्रकार करें गणेश जी की पूजन

इसके बाद विघ्नेश्वरका यथाविधि ‘ॐ गं गणपतये नमः’ से पूजन कर दक्षिणाके पश्चात् आरती कर गणेशजीको नमस्कार करे एवं गणेशजीकी मूर्तिपर सिन्दूर चढ़ाये। मोदक और दूर्वाकी इस पूजामें विशेषता है। अतः पूजाके अवसरपर इक्कीस दूर्वादल भी रखे तथा उनमेंसे दो-दो दूर्वा निम्नलिखित दस नाममन्त्रोंसे क्रमशः चढ़ाये –

१-ॐ गणाधिपाय नमः,
२-ॐ उमापुत्राय नमः,
३-ॐ विघ्ननाशनाय नमः,
४-ॐ विनायकाय नमः,
५-ॐ ईशपुत्राय नमः,
६- ॐ सर्वसिद्धिप्रदाय नमः,
७- ॐ एकदन्ताय नमः,
८-ॐ इभवक्त्राय नमः,
९-ॐ मूषकवाहनाय नमः,
१०-ॐ कुमारगुरवे नमः ।

पश्चात् दसों नामोंका एक साथ उच्चारण कर अवशिष्ट एक दूब चढ़ाये। इसी प्रकार इक्कीस लड्डू भी गणेशपूजामें आवश्यक होते हैं। इक्कीस लड्डूका भोग रखकर पाँच लड्डू मूर्तिके पास चढ़ाये और पाँच ब्राह्मणको दे दे एवं शेषको प्रसादस्वरूपमें स्वयं ले ले तथा परिवारके लोगोंमें बाँट दे।
पूजनकी यह विधि चतुर्थीके मध्याह्नमें करे। ब्राह्मणभोजन कराकर दक्षिणा दे और स्वयं भोजन करे।

पूजनके पश्चात् नीचे लिखे मन्त्रसे वह सब सामग्री ब्राह्मणको निवेदन करे-

दानेनानेन देवेश प्रीतो भव गणेश्वर। सर्वत्र सर्वदा देव निर्विघ्नं कुरु सर्वदा। मानोन्नतिं च राज्यं च पुत्रपौत्रान् प्रदेहि मे ॥

इस व्रतसे मनोवाञ्छित कार्य सिद्ध होते हैं; क्योंकि विघ्नहर गणेशजीके प्रसन्न होनेपर क्या दुर्लभ है ? गणेशजीका यह पूजन बुद्धि, विद्या तथा ऋद्धि-सिद्धिकी प्राप्ति एवं विघ्नोंके नाशके लिये किया जाता है।

कई व्यक्ति श्रीगणेशसहस्रनामावलीके एक हजार नामोंसे प्रत्येक नामके उच्चारणके साथ लड्डू अथवा दूर्वादल आदि श्रीगणेशजीको अर्पित करते हैं। इसे गणपतिसहस्त्रार्चन कहा जाता है

कब करनी चाहिए गणेश स्थापना
क्या है मुहूर्

िस प्रकार जन्माष्टमी पर मध्यरात्रि में श्री कृष्ण का जन्म हुआ, श्री राम नवमी पर मध्यान्ह 12 बजे प्रभु श्री राम का जन्म हुआ उसी प्रकार भगवान गणेश जी की उत्पत्ति मध्यान्ह 12 बजे हुई थी।

श्री कृष्ण जन्माष्टमी

भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को रात के बारह बजे मथुरा नगरी के कारागार में वसुदेवजी की पत्नी देवकी के गर्भ से षोडश कलासम्पन्न भगवान् श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था।
कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’ – इस शास्त्रीय वचन के अनुसार सच्चिदानन्द परब्रह्म परमात्मा सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण समस्त अवतारों में परिपूर्णतम अवतार माने गये हैं।

अथ भाद्रासिताष्टम्यां प्रादुरासीत् स्वयं हरिः ।
ब्रह्मणा प्रार्थितः पूर्वं देवक्यां कृपया विभुः ॥
रोहिण्यक्षै शुभतिथौ दैत्यानां नाशहेतवे।
महोत्सवं प्रकुर्वीत यत्नतस्तद्दिने शुभे ॥
अर्थात् भाद्रपदमास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को पूर्वकाल में स्वयं श्रीहरि ब्रह्मादि देवों की प्रार्थना पर दैत्यों के विनाश हेतु रोहिणी नक्षत्रयुक्त शुभतिथि में माता देवकी के उदर से अनुग्रहपूर्वक प्रकट हुए।

श्रीमद्भागवतमें कहा गया है-
निशीथे तम उद्भूते जायमाने जनार्दने । देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः । आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशीन्दुरिव पुष्कलः ॥

विनाश और ज्ञानरूपी चन्द्रमा का उदय हो रहा था, उस समय देवरूपिणी देवकी के गर्भ से सबके अन्तःकरण में विराजमान पूर्ण पुरुषोत्तम व्यापक परब्रह्म विश्वम्भर प्रभु भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हुए, जैसे कि पूर्व दिशा में पूर्ण चन्द्र प्रकट हुआ।

इस दिन भगवान्‌ का प्रादुर्भाव होने के कारण यह उत्सव मुख्यतया उपवास, जागरण एवं विशिष्टरूप से श्रीभगवान्‌की सेवा-शृङ्गारादिका है। दिन में उपवास और रात्रि में जागरण एवं यथोपलब्ध उपचारों से भगवान का पूजन, भगवत्-कीर्तन इस उत्सवके प्रधान अङ्ग हैं।

इस वर्ष रोहिणी नक्षत्र में मध्यरात्रि की अष्टमी प्राप्त होने से और यह योग सोमवार को होने से यह अत्यंत महत्वपूर्ण दिवस हो जाता है। श्रीकृष्णजन्माष्टमी रोहिणी नक्षत्रयोगरहित हो तो ‘केवला’ और रोहिणी नक्षत्रयुक्त हो तो ‘जयन्ती’ कहलाती है। जयन्ती में बुध-सोमका योग आ जाय तो वह अत्युत्कृष्ट फलदायक हो जाती है। ऐसा योग अनेक वर्षों के बाद सुलभ होता है। जन्माष्टमी केवला और जयन्ती इस शब्दभेद से इन दोनों में क्या अत्यन्त भेद है? या जन्माष्टमी ही गुणवैशिष्ट्यसे जयन्ती कही जाती है। इसका समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं- केवलाष्टमी और जयन्ती में अत्यन्त भिन्नता नहीं है; क्योंकि अष्टमी के बिना जयन्ती का स्वतन्त्र स्वरूप बन ही नहीं सकता। यह तो सिद्ध है कि रोहिणी के बिना भी केवल अष्टमी में व्रत-उपवास किया ही जाता है, किंतु तिथि-योग के बिना रोहिणी में किसी प्रकार का स्वतन्त्र व्रतविधान नहीं है। अतः श्रीकृष्णजन्माष्टमी ही रोहिणीके योगसे जयन्ती बनती है। एतदर्थ कहा गया है कि रोहिणी-गुणविशिष्टाजयन्ती। विशेष सामान्यसे पृथक् नहीं रहता। अष्टमी जयन्ती में पशुत्व गोत्वकी तरह सामान्य- विशेषकृत मात्र भेद है। विष्णुरहस्य में कहा गया है-

अष्टमी कृष्णपक्षस्य रोहिणीऋक्षसंयुता । भवेत्प्रौष्ठपदे मासि जयन्ती नाम सा स्मृता ॥
अर्थात् भाद्रपदमास में कृष्णपक्ष की अष्टमी यदि रोहिणी नक्षत्र से संयुक्त होती है तो वह जयन्ती नाम से जानी जाती है।

इस व्रतमें सप्तमीसहित अष्टमीका ग्रहण निषिद्ध है- पूर्वविद्धाष्टमी या तु उदये नवमीदिने। मुहूर्तमपि संयुक्ता सम्पूर्णा साऽष्टमी भवेत् ॥ कलाकाष्ठामुहूर्ताऽपि यदा कृष्णाष्टमी तिथिः । नवम्यां सैव ग्राह्या स्यात् सप्तमीसंयुता नहि ।।

साधारणतया इस व्रत के विषय में दो मत हैं। स्मार्त लोग अर्धरात्रि का स्पर्श होने पर या रोहिणी नक्षत्र का योग होने पर सप्तमीसहित अष्टमी में भी उपवास करते हैं, किंतु वैष्णव लोग सप्तमी का किञ्चिन्मात्र स्पर्श होने पर द्वितीय दिवस ही उपवास करते हैं। निम्बार्क सम्प्रदायी वैष्णव तो पूर्व दिन अर्धरात्रि से यदि कुछ पल भी सप्तमी अधिक हो तो भी अष्टमी को न करके नवमी में ही उपवास करते हैं। शेष वैष्णवों में उदयव्यापिनी अष्टमी एवं रोहिणी नक्षत्र को ही मान्यता एवं प्रधानता दी जाती है।

इस दिन समस्त भारतवर्ष के मन्दिरों में विशिष्टरूप से भगवान्‌ का श्रृङ्गार किया जाता है। कृष्णावतारके उपलक्ष्य में गली-मुहल्लों एवं आस्तिक गृहस्थोंके घरोंमें भी भगवान् श्रीकृष्ण की लीला की झाँकियाँ सजायी जाती हैं एवं श्रीकृष्ण की मूर्ति का शृङ्गार करके झूला झुलाया जाता है। स्त्री-पुरुष रात्रिके बारह बजे तक उपवास रखते हैं एवं रात के बारह बजे शङ्ख तथा घण्टों के निनाद से श्रीकृष्णजन्मोत्सव मनाया जाता है। भक्तगण मन्दिरों में समवेत स्वर से आरती करते हैं एवं भगवान्‌ का गुणगान करते हैं।
जन्माष्टमी को पूरा दिन व्रत रखने का विधान है। इसके लिये प्रातःकाल उठकर स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर व्रत का निम्न संकल्प करे-

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः अद्य अमुकनामसंवत्सरे सूर्ये दक्षिणायने वर्षौँ भाद्रपदमासे कृष्णपक्षे श्रीकृष्णजन्माष्टम्यां तिथौ अमुकवासरे अमुकनामाहं मम चतुर्वर्गसिद्धिद्वारा श्रीकृष्णदेवप्रीतये जन्माष्टमीव्रताङ्गत्वेन श्रीकृष्णदेवस्य यथामिलितोपचारैः पूजनं करिष्ये ।

इस दिन केले के खम्भे, आम अथवा अशोक के पल्लव आदि से घर का द्वार सजाया जाता है। दरवाजे पर मङ्गल-कलश एवं मूसल स्थापित करे। रात्रि में भगवान् श्रीकृष्णकी मूर्ति अथवा शालग्रामजी को विधिपूर्वक पञ्चामृत से स्नान कराकर षोडशोपचार से विष्णुपूजन करना चाहिये। ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ – इस मन्त्र से पूजनकर तथा वस्त्रालङ्कार आदिसे सुसज्जित करके भगवान्‌ को सुन्दर सजे हुए हिंडोले में प्रतिष्ठित करे। धूप, दीप और अन्नरहित नैवेद्य तथा प्रसूति के समय सेवन होनेवाले सुस्वादु मिष्टान्न, जायकेदार नमकीन पदार्थों एवं उस समय उत्पन्न होनेवाले विभिन्न प्रकार के फल, पुष्पों और नारियल, छुहारे, अनार, बिजौरे, पंजीरी, नारियल के मिष्टान्न तथा नाना प्रकार के मेवे का प्रसाद सजाकर श्रीभगवान्‌को अर्पण करे।

दिन में भगवान्‌ की मूर्ति के सामने बैठकर कीर्तन करे तथा भगवान का गुणगान करे और रात्रिको बारह बजे गर्भ से जन्म लेने के प्रतीकस्वरूप खीरा फोड़कर भगवान्‌ का जन्म कराये एवं जन्मोत्सव मनाये। जन्मोत्सवके पश्चात् कर्पूरादि प्रज्वलित कर समवेत स्वर से भगवान की आरती-स्तुति करे, पश्चात् प्रसाद वितरण करे

चातुर्मास व्रत पालनीय नियम व उनके फल

अथ चातुर्मास्यव्रतम्

द्वादश्यां पारणोत्तरं सायं पूजां कृत्वा चातुर्मास्यव्रतसंकल्पं कुर्यादिति कौस्तुभे एकादश्यामेवेति निर्णयसिन्धुः ।

‘चातुर्मास्यव्रतप्रथमारम्भो गुरुशुक्रास्तादावाशौचादी च न भवति । द्वितीया- द्यारम्भस्तु अस्तादौ आशौचादौ च भवत्येव । चातुर्मास्यव्रतं च शैवादिभिरपि कार्यम् । व्रतग्रहणप्रकारस्तु भगवतो जातीपुष्पादिभिर्महापूजां कृत्वा

सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदम् । विबुद्धे त्वयि वुध्येत प्रसन्नो मे भवाच्युत ॥

इति प्रार्थ्य अग्रे कृताञ्जलिः-

कौस्तुभकार के मत में द्वादशी में पारणा के बाद सायंकाल की पूजा करके चातुर्मास्य व्रत का संकल्प करे। निर्णयसिन्धुकार तो एकादशी में ही संकल्प करने को कहते हैं। पहले पहल चातुर्मास्यत्रत आरम्भ करने पर वह गुरु शुक्र के अस्त आदि और अशौच आदि में नहीं होता है। द्वितीय आरम्भ में तो गुरुशुक्रास्तादि और अशौच आदि में होता ही है। चातुर्मास्यत्रत शैव आदि को भी करना चाहिये। व्रत के ग्रहण का विधान तो यह है भगवान की जुड़ी आदि के फूलों से महती पूजा करके ‘भगवान् जगन्नाथ के सो जाने पर यह संसार सो जाता है, उनके जगने पर जगता है, हे अच्युत भगवान् । मुझ पर प्रसन्न हो’ इस प्रकार आगे अञ्जलि बनाकर प्रार्थना करे।

चतुरो वाषिकान्मासान्देवस्योत्थापनावधि ।

श्रावणे वर्जये शाकं दधि भाद्रपदे तथा ।।

दुग्धमाश्वयुजे मासि कार्तिके द्विदलं तथा ।

इमं करिष्ये नियमं निर्विघ्नं कुरु मेऽच्युत ॥

इदं व्रतं मया देव गृहीतं पुरतस्तव ।

निविघ्नं सिद्धिमायातु प्रसादात्ते रमापते ॥

गृहीतेऽस्मिन्त्रते देव पंचत्वं यदि मे भवेत् ।

तदा भवतु संपूर्ण प्रसादात्ते जनार्दन ।।

इति प्रार्थ्य देवाय शङ्खनाय निवेदयेत् । एतानि व्रतानि नित्यानि ।

वर्ष के चारों महीने भगवान् के जगने से लेकर श्रवण में शाक त्याग दे। भादों में दही न खाय। आश्विन में दूध सेवन न करे और कार्तिक में दाल न खाय। इस नियम को श्रावण से कार्तिक तक मैं करूँगा। हे अच्युत भगवान्। इस मेरे नियम को विध्नरहित कीजिये । हे देव-देव ! इस व्रत को आपके सामने मैंने ग्रहण किया है। हे रुक्ष्मीपते। आपके प्रसाद से मुझे इससे विध्नरहित सिद्धि प्राप्त हो। हे देव । इस व्रत के ग्रहण करने पर यदि मेरा मरण हो जाय तो आप के प्रसाद से हे जनार्दन ! यह व्रत पूरा हो, ऐसी प्रार्थना करके भगवान् को शंख से अध्यं निवेदन करे। ये व्रत नित्य है।

अथ चातुर्मास्ये निषिद्धानि

प्राण्यङ्गचूर्ण चर्मस्थोदकं जम्बीरं यज्ञशेषभिन्नं विष्ण्वनिवेदितान्नं दग्धान्नं मसूरं मांसं चेत्यष्टविधमामिषं वर्जयेत् । निष्पावराजमाषधान्ये लवणशाकं वृन्ताकं कलिङ्गफलम् अनेकबीजफलं निर्बीजं मूलकं कूष्माण्डम् इक्षुदण्डं नूतनबदरीधात्री- फलानि चिञ्चचं मञ्चकादिशयनमनृतुकाले भार्यां परान्नं मधुपटोलं मापकुलित्थ- सितसर्षपांश्च वर्जयेत्वृन्ताकबिल्वोदुम्बरकलिङ्गभिस्सटास्तु वैष्णवैः सर्वमासेषु वाः । अन्यत्र तु गोछागीमहिष्यन्यदुग्धं पर्युषितान्नं द्विजेभ्यः क्रीतारसाभूमि- जलवणं ताम्रपात्रस्थं गव्यं पल्वलजलं स्वार्थपक्कमन्नमित्यामिषगण उक्तः । चतुष्वंपि हि मासेषु हविष्याशी न पापभाक् ।

किसी जीव के अंग का चूर्ण, चमड़े के पात्र का जल, जम्बीरी नीबू, चीजपूर, यज्ञ के बचे हुये अन्न, भगवान् को निवेदन न किया हुआ अन्न, मसूर और मांस, ये आठ प्रकार के मांसगण है। ये आठों चातुर्मास्यव्रत में त्याज्य हैं। निष्या, बोड़ा, नमक, शाक, वेगन, कलिंगफल, बहुत बीजवाला फल, निर्बीजफल, मूली, कुम्हड़ा, ऊँख का डंडा, नया बेर’, आँवले का फल, इमली, पलंग पर सोना, ऋतुभिन्न काल में स्त्रीगमन, दूसरे का अन्न, शहद, परोरा, ऊर्द कुर्थी, और सफेद सरसो का वर्जन करे। वैगन, बेल, गूलर, कलिङ्ग और मिस्सटा तो वैष्णवों को सभी महीनों में त्याज्य है। अन्य ग्रन्थों में तो गाय, बकरी, भैंस से भिन्न का दूध, बासी अन्न, ब्राह्मणों से खरीदे हुये रस, बनाया हुआ मिट्टी का लवण, ताँबे के पात्र में स्थित गाय का दूध, दही एवं घी, गड्ढे का जल और अपने लिये पकाया हुआ अन्न, इन्हें मांसगण कहा है। चारों ही महीनों में हविष्यभोजन करने वाला पापभागी नहीं होता ।

अथ हविष्याणि

ब्रीहिमुद्गयवतिलकङ्ग कलायश्यामाकगोधूमधान्यानि रक्तभिन्नमूलकं सूरणा- दिकन्दः सैन्धवसामुद्रलवणं गव्यानि दधिर्सापर्दुग्धानि पनसाम्रनारीकेलफलानि हरीतकीपिप्पली जीरकशुण्ठी चिञ्श्चाकदलीलवलीधात्रीफलानि गुडेतरेक्षुविकार इत्ये- तानि ‘अतैलपक्कानि गव्यं तक्रं माहिषं घृतं कचित् ।

धान, यव, मूंग, तिल, कँगुनी, कलाय, साँवाँ, गेहूँ, लाल रंग को छोड़ कर मूली, सुरण आदि कन्द, सेंधा और समुद्र का नमक, गाय का दही, दूध और घी, कटहल, आम, नारियल के फल, हरें, पीपल, जीरा, सौंठ, इमली, केला, बड़हर और आँवले का फल, गुड़ को छोड़ कर ऊँख से बने चीनी आदि ये सब चीजें तेल में पकी न हों, गाय का मट्ठा और भैंस केबी को भी कहीं पर हविष्य कहा है।

अथ शाकव्रतांनर्णयः

अहं शाकं वर्जयिष्ये श्रावणे मासि माधव’ इत्यत्र शाकशब्देन लोके प्रसिद्धाः फलमूलपुष्पपत्राङ्कुरकाण्डत्वगादिरूपा वर्ज्या, न तु व्यञ्जनमात्रम् । शुण्ठीहरिद्रा- जीरकादिकमपि वयम् । तत्र तत्कालोद्भवानामातपादिशोषितकालान्तरो- द्भवानां च सर्वशाकानां वर्जनं कार्यम् । अथैषां चातुर्मास्यव्रतानां समाप्तौ कार्तिक्यां दानानि तत्रैव वक्ष्यन्ते ।

‘मैं सावन के महीने में शाक का त्याग करूँगा’ इस वचन में शाकशब्द से संसार में प्रसिद्ध फळ, मूत्र, फूल, अङ्कुर, डण्ठल, छाल आदि का त्याग करे, न कि व्यञ्जनमात्र का। सौंठ, जीरा, ल्दी आदि भी छोड़ दे। इसमें सामयिक शाकों को घाम में सुखा कर दूसरे समय में भी होने वाले शाकों को छोड़ देना चाहिये। चातुर्मास्यव्रतों के समाप्त होने पर कार्तिक पूर्णिमा के दानों को वहीं कहेंगे ।

 

चातुर्मास व्रत फल

भगवान् विष्णुके शयन करनेपर चातुर्मास्यमें जो कोई नियम पालित होता है, वह अनन्त फल देनेवाला होता है। अतः विज्ञ पुरुषको प्रयत्न करके चातुर्मासमें कोई नियम ग्रहण करना चाहिये। भगवान् विष्णुके संतोषके लिये नियम, जप, होम, स्वाध्याय अथवा व्रतका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। जो मानव भगवान् वासुदेवके उद्देश्यसे केवल शाकाहार करके वर्षाके चार महीने व्यतीत करता है, वह धनी होता है। जो भगवान् विष्णुके शयनकालमें प्रतिदिन नक्षत्रोंका दर्शन करके ही एक बार भोजन करता है, वह धनवान्, रूपवान् और माननीय होता है। जो एक दिनका अन्तर देकर भोजन करते हुए चौमासा व्यतीत करता है, वह सदा वैकुण्ठधाममें निवास करता है।

भगवान् जनार्दनके शयन करनेपर जो छठे दिन भोजन करता है, वह राजसूय तथा अश्वमेधयज्ञोंका सम्पूर्ण फल पाता है। जो सदा तीन रात उपवास करके चौथे दिन भोजन करते हुए चौमासा बिताता है, वह इस संसारमें फिर किसी प्रकारका जन्म नहीं लेता। जो श्रीहरिके शयनकालमें व्रतपरायण होकर चौमासा व्यतीत करता है, वह अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता है। जो भगवान् मधुसूदनके शयन करनेपर अयाचित अन्नका भोजन करता है, उसे अपने भाई- बन्धुओंसे कभी वियोग नहीं होता। जो मानव ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक चौमासा व्यतीत करता है, वह श्रेष्ठ विमानपर बैठकर स्वेच्छासे स्वर्गलोकमें जाता है। जो चौमासेभर नमकीन वस्तुओं एवं नमकको छोड़ देता है, उसके सभी पूर्तकर्म सफल होते हैं। जो चौमासेमें प्रतिदिन स्वाहान्त विष्णुसूक्तके मन्त्रोंद्वारा तिल और चावलकी आहुति देता है, वह कभी रोगी नहीं होता।

चातुर्मास्यमें प्रतिदिन स्नान करके जो भगवान् विष्णुके आगे खड़ा हो ‘पुरुषसूक्त’का जप करता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है। जो अपने हाथमें फल लेकर मौनभावसे भगवान् विष्णुकी एक सौ आठ परिक्रमा करता है, वह पापसे लिप्त नहीं होता। जो अपनी शक्तिके अनुसार चौमासेमें- विशेषतः कार्तिकमासमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको मिष्टान्न भोजन कराता है, वह अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता है।

वर्षाके चार महीनोंतक नित्यप्रति वेदोंके स्वाध्यायसे जो भगवान् विष्णुकी आराधना करता है, वह सर्वदा विद्वान् होता है। जो चौमासेभर भगवान्के मन्दिरमें रात-दिन नृत्य- गीत आदिका आयोजन करता है, वह गन्धर्वभावको प्राप्त होता है। यदि चार महीनोंतक नियमका पालन करना सम्भव न हो तो मात्र कार्तिकमासमें ही सब नियमोंका पालन करना चाहिये। जिसने कुछ उपयोगी वस्तुओंको चौमासेभर त्याग देनेका नियम लिया हो, उसे वे वस्तुएँ ब्राह्मणको दान करनी चाहिये। ऐसा करनेसे ही वह त्याग सफल होता है। जो मनुष्य नियम, व्रत अथवा जपके बिना ही चौमासा बिताता है, वह मूर्ख है।

हनुमान जी की युगीन प्रासंगिकता

त्रेता युग के विशिष्ट और रुद्र अवतार हनुमान जी का अलग ही संदर्भ आता है। विशेष कर इसलिए क्योंकि हनुमान जी अष्ट सिद्धि नव निधि के भी दाता है। रुद्र केअंश स्वरूप में हनुमान जी का अवतरण और भगवान श्री राम की सेवा का भाव साक्षात महाशिव की शिव लीला ही है। त्रेता युग से लेकर कलियुग तक सनातन धर्म की विशेषता उसके भक्ति के रंगों से आच्छादित है। यह कहना सही है की सनातन धर्म का अध्यात्म भक्ति के दृढ़ व समर्पित रंगों से रंगा हुआ है। हनुमान जी रुद्र अवतार माने जाते हैं और सबसे मुख्य बात रामनवमी के पांचवें दिन हनुमान जी की जयंती आती है चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि पर हनुमान जी का प्राकट्य है। ग्रंथों व कथानकों के माध्यम से अलग-अलग कथाएं शास्त्र संदर्भ में निहित है।

संकट कटे मिटे सब पीरा जपत निरंतर हनुमत वीरा

हनुमान जी का प्रताप बड़ा ही निराला है। श्री राम के द्वारा चिरंजीव होने का वरदान और भगवान शिव की विशेष कृपा, माता सीता का आशीर्वाद और पंच महाभूत की विशेष कृपा इन सब का एकत्रित स्वरूप में हनुमान जी का सिद्ध क्रम होना त्रेता युग की विशेष गाथा को बताता है। हनुमान जी की साधना के लिए श्री राम जी ने त्रेता युग में ही कलियुग के संबंध के चिंतन को बता दिया था। यही कारण है कि श्री राम जी ने हनुमान जी को विशेष वरदानों के माध्यम से चिरकाल तक पृथ्वी पर रहने का वरदान व आशीर्वाद प्रदान किया क्योंकि वे जानते थे कलयुग में अलग-अलग चरणों में संकट, दुख, चिंता, कष्ट व्याधि, पीड़ा आदि बढ़ेंगे इनकी निवृत्ति के लिए जो धर्म के माध्यम से भक्ति के सोपान को स्पर्श करेगा वही सुरक्षित रहेगा। इन्हीं माध्यमों को एकत्रित करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमान जी के बल पराक्रम पर स्तोत्र पाठ लिखे हैं उनके आवर्तन करने से जीवन में संकट पीड़ा कष्ट चिंता सब निवृत हो जाते हैं निरंतर हनुमान जी के पाठ स्त्रोत पाठ आदि करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है और संकट समाप्त होते हैं

बल व युक्ति को देने वाले हनुमान जी

हनुमान जी की विशेषता अलग-अलग प्रकार से मुनियों द्वारा गाई गई है, जिसमें उनके पराक्रम शौर्य, बल, बुद्धि के चातुर्य से किस प्रकार राम व लक्ष्मण प्रभावित हुए थे यह रामायण में उल्लेखित है किंतु हनुमान जी के संबंध में उनके द्वारा किए गए सेवा कार्य को देखें तो बहुत कुछ सीखने में व समझने में आएगा किस प्रकार बल को प्राप्त किया जा सकता है और किस प्रकार से युक्ति के माध्यम से किसी प्रकार की समस्या का समाधान किया जा सकता है विशेष कर तब जब वह कोई विशेष संकट की घड़ी हो तब कैसे अपने इष्ट की कृपा के माध्यम से विश्वस्त होकर के समस्या का निराकरण हो सकता है यह सब हनुमान जी अपने लीला प्रकृति में देखने व समझने में बता रहे हैं।

सामंजस्य व सहयोग के सूत्र में आगे बढ़ाने वाले

जिस प्रकार सुग्रीव को किष्किंधा राज्य का राजा बनाने के लिए राम जी वचनबद्ध थे उनके वचन में पूर्णता लाने का प्रथम सोपान हनुमान जी ने स्थापित किया। क्योंकि राम जी और सुग्रीव जी के मध्य मैत्री संबंध को स्थापित करने वाले और परिस्थिति तथा बल, शक्ति के मध्य सामंजस्य सेवा सहयोग करने वाले हनुमान जी थे। यह वर्तमान में संसार को एक प्रकार का संदेश भी है कि सरलता, शक्ति, बल, पराक्रम, पुरुषार्थ, सामान्य सेवा, सेवक के माध्यम से कितने सफल हो सकते हैं यह सीखने की आवश्यकता है।

प्रेम भक्ति में समर्पण के युगपुरुष

हनुमान जी की भक्ति राम जी के प्रति जग जाहिर है जिस प्रकार भक्ति के प्रति समर्पण अर्थात् राम जी के प्रति समर्पण व प्रेम की भावना भरत से कम नहीं थी यहां पर प्रेम व भक्ति का एक अलग ही सामंजस्य अनुभव करने में आता है अत्यधिक प्रेम भक्ति की ही पराकाष्ठा है हालांकि भक्ति एक अलग संबंध विषय है प्रेम एक अलग संबंध विषय है किंतु फिर भी हनुमान जी का राम जी के प्रति प्रेम को प्रभु भक्ति दोनों को संयुक्त रखने का सुख हनुमान जी के पास में है यहां पर यह सीखा जा सकता है की परिवार में भी माता-पिता या वरिष्ठ के प्रति प्रेम भावना या सद्भावना रखने से स्थिति शीघ्रता से नियंत्रित होती है और क्लेश समाप्त हो जाते हैं।

चिरंजीवी होकर चिरंजीवी होने का आशीर्वाद प्रदान करने वाले

भारतीय दर्शन आठ चिरंजीवियों की गाथा कहता है उनमें से एक हनुमान जी महाराज है वर्तमान में कलियुग के प्रथम चरण में सभी प्रकार के संकटों से मुक्त होने के लिए पीड़ा से मुक्त होने के लिए दुख चिंताओं से मुक्त होने के लिए हनुमान जी की शरण में लोग जाते हैं पूजा अर्चना करते हैं और अपने दायित्व के निर्वाह के लिए चिरंजीवी होने का आशीर्वाद मांगते हैं ताकि सभी प्रकार से सुरक्षा की प्राप्ति हो सके और भविष्य में लोग अपने परिवार तथा बच्चों के लिए आनंद व सुख शांति के साथ आगे की यात्रा बढ़ा सके।

हनुमान जी की प्रसन्नता के लिए यह उपाय करने चाहिए

हनुमान चालीसा का पाठ हनुमत स्तोत्र
हनुमान वडवानल स्तोत्र हनुमान साठिका
पंचमुखी हनुमान कवच एकादशमुखी हनुमान कवच इनके पाठ यथा विधि श्रद्धा के साथ करने से पारिवारिक सुख, शांति, स्वास्थ्य, सुरक्षा व दीर्घायु की प्राप्ति होती है।

श्री हनुमत जन्मोत्सव

चैत्र मास की पूर्णिमा को सूर्योदय के समय मेष लग्न में मनेगा श्री हनुमान जन्मोत्सव

शिवपुराण की मान्यतानुसार चैत्र मास में पूर्णिमा के दिन हनुमानजी महाराज का जन्म ठीक सूर्योदय के समय हुआ। एक मत यह भी है की हनुमानजी का जन्म कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को भी माना गया है। परंतु शास्त्रांतर में चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को ही हनुमतजन्म का उल्लेख किया है।

कैसे हुआ हनुमानजी का जन्म

शिवपुराण की कथा के अनुसार रामावतार के समय ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं को वानर व भालुओं के रूप में पृथ्वी पर प्रकट हो कर श्री रामजी की सेवा करने का आदेश दिया। इसी क्रम में परम राम भक्त सदैव रामप्रिय भगवान शिव ने भी रामजी की सेवा में अपने अंशावतार में जन्म लेने हेतु भगवान विष्णु का मोहिनी रूप देख लीलावश काम में व्याकुल हो श्रीरामजी का कार्य करने हेतु अपना वीर्यपात किया सप्तर्षियों ने उस वीर्य को पत्ते पर स्थापित कर पवन के वेग से गौतम की पुत्री अञ्जनी में कर्ण के द्वारा रामचन्द्रजी के कार्यार्थ प्रवेश कराया और महाबली पराक्रमी वानर शरीर वाले शिवजी के अंशावतार श्री हनुमानजी का जन्म हुआ जो सदैव रामजी की सेवा में तत्पर रहते है।

कैसे मनाए हनुमान जयंती

साधक को हनुमान जयंती के एक दिन पूर्व व्रत कर ब्रह्मचर्य का पालन कर पृथ्वी पर शयन करे और रात्रि की चौथी प्रहार में उठ कर स्नान आदि कर पवित्र वस्त्र धारण कर ब्रह्मा मुहूर्त में “मम शौर्यौदार्यधैर्यादिवृद्धयर्थं हनुमत्प्रीतिकामनया हनुमज्जयन्तीमहोत्सवमहं करिष्ये” यह संकल्प करके हनुमान्जीका यथाविधि षोडशोपचार पूजन करें। पूजनके उपचारोंमें गन्धपूर्ण तेलमें सिन्दूर मिलाकर मूर्ति को चर्चित करे, पुष्प आदि चढ़ाए तथा नैवेद्य में घृतपूर्ण चूरमा या घीमें सेंके हुए और शर्करा मिले हुए आटे या बेसन का लड्डू एवं केला, आम, अमरूद आदि फल अर्पण करके ‘वाल्मीकीय रामायण’के सुन्दरकाण्डका पाठ कर ठीक सूर्योदय पर भगवान के जन्म के समय भगवान की आरती करें, तत्पश्चात हनुमते नमः का जाप करें। इसके पश्चात दिनभर रामचरितमानस का पाठ करे जिस से हनुमानजी की विशेष कृपा प्राप्त होगी।
संक्षिप्त में इन श्लोकों का भी पाठ किया जा सकता है

जयत्यतिबलो रामो लक्ष्मणश्च महाबलः । राजा जयति सुग्रीवो राघवेणाभिपालितः ॥ दासोऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्याक्लिष्टकर्मणः । हनूमाशत्रुसैन्यानां निहन्ता मारुतात्मजः ॥ न रावणसहस्त्रं मे युद्धे प्रतिबलं भवेत् । शिलाभिश्च प्रहरतः पादपैश्च सहस्त्रशः ॥ अर्दयित्वा पुरीं लङ्कामभिवाद्य च मैथिलीम् । समृद्धार्थो गमिष्यामि मिषतां सर्वरक्षसाम् ॥

होलिका का पूजन

प्रदोष काल में होलिका का पूजन
पंचांग की गणना के अनुसार फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि पर प्रदोष काल में होलिका के पूजन की मान्यता है। इस बार 24 मार्च को रविवार के दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र की साक्षी में प्रदोष काल के दौरान होलिका का पूजन होगा। कुछ स्थानों पर भद्रा के बाद पूजन की मान्यता बताई गई है। जबकि कन्या राशि के चंद्रमा की साक्षी में आने वाले पर्व पर भद्रा पाताल लोक में निवास करती है। इस दृष्टि से इसमें कोई दोष नहीं है। अर्थात प्रदोष काल में ही होलिका का पूजन किया जाएगा।

पाताल वासिनी भद्रा होने से शुभ मंगलकारी
हर बार होलिका का पूजन एक या दो साल के अंतराल में भद्रा की साक्षी में आता ही है। यह भी लगभग स्पष्ट है कि होलिका के पूजन पर भद्रा का दोष कितना मान्य है या नहीं। इस विषय पर यदि चर्चा की जाए तो ज्योतिष शास्त्र में भद्रा का वास चंद्रमा के राशि संचरण के आधार पर बताया गया है। यदि भद्रा, कन्या, तुला, धनु राशि के चंद्रमा की साक्षी में आती है तो वह भद्रा पाताल में वास करती है और पाताल में वास करने वाली भद्रा धन-धान्य और प्रगति को देने वाली मानी गई है। इस दृष्टि से भद्रा की उपस्थिति शुभ मंगल कारी मानी गई है।

उत्तरा फाल्गुनी की साक्षी में रहेगा रंग का पर्व
नक्षत्र मेखला की गणना के अनुसार देखें तो होलिका का पूजन प्रदोष काल में होगा। इस समय उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र रहेगा। यह नक्षत्र कन्या राशि की कक्षा में आता है। मुहूर्त चिंतामणि की गणना से बात करें तो उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में किया गया कार्य विशेष पर्व काल पर आता हो तो यह नक्षत्र धन-धान्य की वृद्धि देने वाला माना जाता है।

कब है रंगों वाली होली
हर साल फाल्गुन मास में होली का पर्व मनाया जाता है। इस साल 24 मार्च के मध्य रात्रि से लेकर 25 मार्च के दोपहर तक होलिका दहन का उचित समय है। जबकि कुछ स्थानों पर मध्य रात्रि के उपरान्त होलिका दहन का शुभ समय माना गया है। इसके अनुसार 25 मार्च को रंगों वाली होली यानि धुलंडी खेली जाएगी।

घर में सुख-शांति व रोग दोष की निवृत्ति करता
पौराणिक कथाओं में अलग-अलग प्रकार के संदर्भ होलिका के संबंध में प्राप्त होते हैं। इसका सकारात्मक पक्ष उठाएं तो पर्व काल पर होलिका का पूजन करने से पुत्र-पौत्र, धन- धान्य की प्राप्ति होती है। क्योंकि पौराणिक मान्यता में होलिका का पूजन विधि विधान से पंचोपचार पूजन की मान्यता के साथ करने से रोग दोष की निवृत्ति होती है। साथ ही घर परिवार में सुख शांति होती है। पुत्र-पौत्र से परिपूर्ण घर परिवार बना रहता है।

धर्म-सत्यता की प्रकट पराकाष्ठा
प्रहलाद की भक्ति धर्म और सत्यता के निकट है। यह हमारे जीवन में संकल्पों के प्रति दृढ़ मान्यता का भी परिचायक है। यह कहने और सोचने वाले पर निर्भर करता है कि हम धर्म किस प्रकार से मानते हैं। सामान्यतः धर्म धारण करने की अवस्था है। अच्छे विचारों को धारण करना जो पंच महाभूत से संबद्ध हो व संतुलन करना सिखाता है। संतुलन सीख हम सत्य के निकट पहुंच जाते हैं।

महाशिवरात्रि का व्रत

कल है महाशिवरात्रि का व्रत, जानिए क्या है उपवास के बाधक बारह दोष, किस प्रकार किया जाए व्रत और किस विधि से की जय भगवान सर्वेश्वर की पूजन –

उपवासके बाधक बारह दोष

क्रोधः कामो लोभमोहौ विधित्साकृपासूये मानशोकौ स्पृहा च।
ईर्ष्या जुगुप्सा च मनुष्यदोषा वर्ज्याः सदा द्वादशैते नराणाम् ।।
एकैकः पर्युपास्ते ह मनुष्यान् मनुजर्षभ ।
लिप्समानोऽन्तरं तेषां मृगाणामिव लुब्धकः ॥

‘काम, क्रोध, लोभ, मोह, असंतोष, निर्दयता, असूया, अभिमान, शोक, स्पृहा, ईर्ष्या और निन्दा-मनुष्योंमें रहनेवाले ये बारह दोष सदा ही त्याग देने योग्य हैं। नरश्रेष्ठ ! जैसे व्याध मृगोंको मारनेका अवसर देखता हुआ उनकी टोहमें लगा रहता है, उसी प्रकार इनमेंसे एक-एक दोष मनुष्योंका छिद्र देखकर उनपर आक्रमण कर देते हैं।’

व्रतका महत्त्व

शिवपुराणकी कोटिरुद्रसंहितामें बताया गया है कि शिवरात्रिव्रत करनेसे व्यक्तिको भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्राप्त होते हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा पार्वतीजीके पूछनेपर भगवान् सदाशिवने बताया कि शिवरात्रिव्रत करनेसे महान् पुण्यकी प्राप्ति होती है। मोक्षार्थीको मोक्षकी प्राप्ति करानेवाले चार व्रतोंका नियमपूर्वक पालन करना चाहिये। ये चार व्रत हैं- १- भगवान् शिवकी पूजा, २- रुद्रमन्त्रोंका जप, ३-शिवमन्दिरमें उपवास तथा ४-काशीमें देहत्याग । शिवपुराणमें मोक्षके चार सनातन मार्ग बताये गये हैं। इन चारोंमें भी शिवरात्रिव्रतका विशेष महत्त्व है। अतः इसे अवश्य करना चाहिये। यह सभीके लिये धर्मका उत्तम साधन है। निष्काम अथवा सकामभावसे सभी मनुष्यों, वर्णों, आश्रमों, स्त्रियों, बालकों तथा देवताओं आदिके लिये यह महान् व्रत परम हितकारक माना गया है। प्रत्येक मासके शिवरात्रिव्रतोंमें भी फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशीमें होनेवाले महाशिवरात्रिव्रतका शिवपुराणमें विशेष माहात्म्य बताया गया है।

रात्रि ही क्यों ?

अन्य देवताओंका पूजन, व्रत आदि जबकि प्रायः दिनमें ही होता है तब भगवान् शङ्करको रात्रि ही क्यों प्रिय हुई और वह भी फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशीतिथि ही क्यों ? इस जिज्ञासाका समाधान विद्वानोंने बताया है कि ‘भगवान् शङ्कर संहारशक्ति और तमोगुणके अधिष्ठाता हैं, अतः तमोमयी रात्रिसे उनका स्नेह (लगाव) होना स्वाभाविक ही है। रात्रि संहारकालकी प्रतिनिधि है, उसका आगमन होते ही सर्वप्रथम प्रकाशका संहार, जीवोंकी दैनिक कर्मचेष्टाओंका संहार और अन्तमें निद्राद्वारा चेतनताका ही संहार होकर सम्पूर्ण विश्व संहारिणी रात्रिकी गोदमें अचेतन होकर गिर जाता है। ऐसी दशामें प्राकृतिक दृष्टिसे शिवका रात्रिप्रिय होना सहज ही हृदयङ्गम हो जाता है। यही कारण है कि भगवान् शङ्करकी आराधना न केवल इस रात्रिमें ही वरन् सदैव प्रदोष ( रात्रिके प्रारम्भ होने) के समयमें की जाती है।’

शिवरात्रिका कृष्णपक्षमें होना भी साभिप्राय ही है। शुक्लपक्षमें चन्द्रमा पूर्ण (सबल) होता है और कृष्णपक्षमें क्षीण। उसकी वृद्धिके साथ-साथ संसारके सम्पूर्ण रसवान् पदार्थोंमें वृद्धि और क्षयके साथ-साथ उनमें क्षीणता होना स्वाभाविक एवं प्रत्यक्ष है। क्रमशः घटते-घटते वह चन्द्रमा अमावास्याको बिलकुल क्षीण हो जाता है। चराचर जगत्के यावन्मात्र मनके अधिष्ठाता उस चन्द्रके क्षीण हो जानेसे उसका प्रभाव अण्ड-पिण्डवादके अनुसार सम्पूर्ण भूमण्डलके प्राणियोंपर भी पड़ता है और उन्मना जीवोंके अन्तःकरणमें तामसी शक्तियाँ प्रबुद्ध होकर अनेक प्रकारके नैतिक एवं सामाजिक अपराधोंका कारण बनती हैं। इन्हीं शक्तियोंका अपर नाम आध्यात्मिक भाषामें भूत-प्रेतादि है और शिवको इनका नियामक (नियन्त्रक) माना जाता है। दिनमें यद्यपि जगदात्मा सूर्यकी स्थितिसे आत्मतत्त्वकी जागरूकताके कारण ये तामसी शक्तियाँ अपना विशेष प्रभाव नहीं दिखा पाती हैं, किंतु चन्द्रविहीन अन्धकारमयी रात्रिके आगमनके साथ ही वे अपना प्रभाव दिखाने लगती हैं। इसलिये जैसे पानी आनेसे पहले ही पुल बाँधा जाता है, उसी प्रकार इस चन्द्रक्षय (अमावास्या)-तिथिके आनेसे सद्य:पूर्व ही उन सम्पूर्ण तामसी वृत्तियोंके उपशमनार्थ इन वृत्तियोंके एकमात्र अधिष्ठाता भगवान् आशुतोषकी आराधना करनेका विधान शास्त्रकारोंने किया है। विशेषतया कृष्णचतुर्दशीकी रात्रिमें शिवाराधनाका रहस्य है।

उपवास-रात्रिजागरण क्यों ?

ऋषि-महर्षियोंने समस्त आध्यात्मिक अनुष्ठानोंमें उपवासको महत्त्वपूर्ण माना है। गीता (२।५९)-की इस उक्ति ‘विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः’- के अनुसार उपवास विषय-निवृत्तिका अचूक साधन है। अतः आध्यात्मिक साधनाके लिये उपवास करना परमावश्यक है। उपवासके साथ रात्रिजागरणके महत्त्वपर गीता (२।६९) का यह कथन अत्यन्त प्रसिद्ध है- ‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।’ इसका सीधा तात्पर्य यही है कि उपवासादिद्वारा इन्द्रियों और मनपर नियन्त्रण करनेवाला संयमी व्यक्ति ही रात्रिमें जागकर अपने लक्ष्यको प्राप्त करनेके लिये प्रयत्नशील हो सकता है। अतः शिवोपासनाके लिये उपवास एवं रात्रिजागरणके अतिरिक्त और कौन साधन उपयुक्त हो सकता है ? रात्रिप्रिय शिवसे भेंट करनेका समय रात्रिके अलावा और कौन समय हो सकता है ? इन्हीं सब कारणोंसे इस महान् व्रतमें व्रतीजन उपवासके साथ रात्रिमें जागकर शिवपूजा करते हैं।

पूजाविधि

शिवपुराणके अनुसार व्रती पुरुषको प्रातःकाल उठकर स्नान-संध्या आदि कर्मसे निवृत्त होनेपर मस्तकपर भस्मका त्रिपुण्ड्र तिलक और गलेमें रुद्राक्षमाला धारण कर शिवालयमें जाकर शिवलिङ्गका विधिपूर्वक पूजन एवं शिवको नमस्कार करना चाहिये। तत्पश्चात् उसे श्रद्धापूर्वक व्रतका इस प्रकार संकल्प करना चाहिये-

शिवरात्रिव्रतं ह्येतत् करिष्येऽहं महाफलम्।

निर्विघ्नमस्तु मे चात्र त्वत्प्रसादाज्जगत्पते ॥

यह कहकर हाथमें लिये पुष्पाक्षत, जल आदिको छोड़नेके पश्चात् यह श्लोक पढ़ना चाहिये- देवदेव महादेव नीलकण्ठ नमोऽस्तु ते। कर्तुमिच्छाम्यहं देव शिवरात्रिव्रतं तव ॥ तव प्रसादाद्देवेश निर्विघ्नेन भवेदिति । कामाद्याः शत्रवो मां वै पीडां कुर्वन्तु नैव हि ॥

(शिवपु० कोटिरुद्रसंहिता ३८। २८-२९)
अर्थात् हे देवदेव । हे महादेव ! हे नीलकण्ठ ! आपको नमस्कार है। हे देव। मैं आपका शिवरात्रिव्रत करना चाहता हूँ। हे देवेश्वर! आपकी कृपासे यह व्रत निर्विघ्न पूर्ण हो और काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रु मुझे पीडित न करें।

रात्रिपूजा

दिनभर अधिकारानुसार शिवमन्त्रका यथाशक्ति जप करना चाहिये अर्थात् जो द्विज हैं और जिनका विधिवत् यज्ञोपवीत-संस्कार हुआ है तथा नियमपूर्वक यज्ञोपवीत धारण करते हैं, उन्हें ‘ॐ नमः शिवाय’ मन्त्रका जप करना चाहिये, परंतु जो द्विजेतर अनुपनीत एवं स्त्रियाँ हैं, उन्हें प्रणवरहित ‘शिवाय नमः’ मन्त्रका ही जप करना चाहिये। रुग्ण, अशक्त और वृद्धजन दिनमें फलाहार ग्रहणकर रात्रि- पूजा कर सकते हैं, वैसे यथाशक्ति बिना फलाहार ग्रहण किये रात्रिपूजा करना उत्तम है। रात्रिके चारों प्रहरोंकी पूजाका विधान शास्त्रकारोंने किया है। सायंकाल स्नान करके किसी शिवमन्दिरमें जाकर अथवा घरपर ही (यदि नर्मदेश्वर अथवा अन्य इसी प्रकारका शिवलिङ्ग हो) सुविधानुसार पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर और तिलक एवं रुद्राक्ष धारण करके पूजाका इस प्रकार संकल्प करे-देशकालका संकीर्तन करनेके अनन्तर बोले- ‘ममाखिलपापक्षयपूर्वकसकलाभीष्टसिद्धये शिवप्रीत्यर्थं च शिवपूजनमहं करिष्ये।’ अच्छा तो यह है कि किसी दैदिक विद्वान् ब्राह्मणके निर्देशनमें वैदिक मन्त्रोंसे रुद्राभिषेकका अनुष्ठान कराया जाय।

व्रतीको पूजाकी सामग्री अपने पासमें रखनी चाहिये- ऋतुकालके फल-पुष्प, गन्ध (चन्दन), बिल्वपत्र, धतूरा, धूप, दीप और नैवेद्य आदिद्वारा चारों प्रहरकी पूजा करनी चाहिये। दूध, दही, घी, शहद और शक्करसे अलग-अलग तथा सबको एक साथ मिलाकर पश्चामृतसे शिवको स्नान कराकर जलधारासे उनका अभिषेक करना चाहिये। चारों पूजनोंमें पञ्चोपचार अथवा षोडशोपचार, यथालब्धोपचारसे पूजन करते समय शिवपञ्चाक्षर (‘नमः शिवाय’)-मन्त्रसे अथवा रुद्रपाठसे भगवान्का जलाभिषेक करना चाहिये। भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महान्, भीम और ईशान- इन आठ नामोंसे पुष्पाञ्जलि अर्पितकर भगवान्की आरती और परिक्रमा करनी चाहिये। अन्तमें भगवान् शम्भुसे इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये-

नियमो यो महादेव कृतश्चैव त्वदाज्ञया ।

विसृज्यते मया स्वामिन् व्रतं जातमनुत्तमम् ॥ व्रतेनानेन देवेश यथाशक्तिकृतेन च। सन्तुष्टो भव शर्वाद्य कृपां कुरु ममोपरि ॥

(शिवपुराण, कोटिरुद्रसंहिता ३८।४२-४३)

अर्थात् ‘हे महादेव! आपकी आज्ञासे मैंने जो व्रत किया, हे स्वामिन् ! वह परम उत्तम व्रत पूर्ण हो गया। अतः अब उसका विसर्जन करता हूँ। हे देवेश्वर शर्व! यथाशक्ति किये गये इस व्रतसे आप आज मुझपर कृपा करके संतुष्ट हों।’

अशक्त होनेपर यदि चारों प्रहरकी पूजा न हो सके तो पहले प्रहरकी पूजा अवश्य करनी चाहिये और अगले दिन प्रातःकाल पुनः स्नानकर भगवान् शङ्करकी पूजा करनेके पश्चात् व्रतकी पारणा करनी चाहिये। स्कन्दपुराणके अनुसार इस प्रकार अनुष्ठान करते हुए शिवजीका पूजन, जागरण और उपवास करनेवाले मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता।

इस महान् पर्वके विषयमें एक आख्यानके अनुसार शिवरात्रिके दिन पूजन करती हुई किसी स्त्रीका आभूषण चुरा लेनेके अपराधमें मारा गया कोई व्यक्ति इसलिये शिवजीकी कृपासे सद्गतिको प्राप्त हुआ; क्योंकि चोरी करनेके प्रयासमें वह आठ प्रहर भूखा-प्यासा और जागता रहा। इस कारण अनायास ही व्रत हो जानेसे शिवजीने उसे सद्गति प्रदान कर दी।

इस व्रतकी महिमाका पूर्णरूपसे वर्णन करना मानवशक्तिसे बाहर है। अतः कल्याणके इच्छुक सभी मनुष्योंको यह व्रत करना चाहिये।

फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशीका रहस्य

जहाँतक प्रत्येक मासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीके शिवरात्रि कहलानेकी बात है, वे सभी शिवरात्रि ही कहलाती हैं और पञ्चाङ्गोंमें उन्हें इसी नामसे लिखा जाता है, परंतु फाल्गुनकी शिवरात्रि महाशिवरात्रिके नामसे पुकारी जाती है। जिस प्रकार अमावास्याके दुष्प्रभावसे बचनेके लिये उससे ठीक एक दिन पूर्व चतुर्दशीको यह उपासना की जाती है, उसी प्रकार क्षय होते हुए वर्षके अन्तिम मास चैत्रसे ठीक एक मास पूर्व फाल्गुनमें ही इसका विधान शास्त्रोंमें मिलता है जो कि सर्वथा युक्तिसंगत ही है। साथ ही रुद्रोंके एकादश संख्यात्मक होनेके कारण भी इस पर्वका ११वें मास (फाल्गुन)-में सम्पन्न होना इस व्रतोत्सवके रहस्यपर प्रकाश डालता है।

पर्वका संदेश

भगवान् शङ्करमें अनुपम सामञ्जस्य, अद्भुत समन्वय और उत्कृष्ट सद्भावके दर्शन होनेसे हमें उनसे शिक्षा ग्रहणकर विश्व-कल्याणके महान् कार्यमें प्रवृत्त होना चाहिये-यही इस परम पावन पर्वका मानवजातिके प्रति दिव्य संदेश है। शिव अर्धनारीश्वर होकर भी कामविजेता हैं, गृहस्थ होते हुए भी परम विरक्त हैं, हलाहल पान करनेके कारण नीलकण्ठ होकर भी विषसे अलिप्त हैं, ऋद्धि-सिद्धियोंके स्वामी होकर भी उनसे विलग हैं, उग्र होते हुए भी सौम्य हैं, अकिंचन होते हुए भी सर्वेश्वर हैं, भयंकर विषधरनाग और सौम्य चन्द्रमा दोनों ही उनके आभूषण हैं, मस्तकमें प्रलयकालीन अग्नि और सिरपर परम शीतल गङ्गाधारा उनका अनुपम शृङ्गार है। उनके यहाँ वृषभ और सिंहका तथा मयूर एवं सर्पका सहज वैर भुलाकर साथ-साथ क्रीडा करना समस्त विरोधी भावोंके विलक्षण समन्वयकी शिक्षा देता है। इससे विश्वको सह-अस्तित्व अपनानेकी अद्भुत शिक्षा मिलती है।

इसी प्रकार उनका श्रीविग्रह-शिवलिङ्ग ब्रह्माण्ड एवं निराकार ब्रह्मका प्रतीक होनेके कारण सभीके लिये पूजनीय है। जिस प्रकार निराकार ब्रह्म रूप, रंग, आकार आदिसे रहित होता है उसी प्रकार शिवलिङ्ग भी है। जिस प्रकार गणितमें शून्य कुछ न होते हुए भी सब कुछ होता है, किसी भी अङ्कके दाहिने होकर जिस प्रकार यह उस अङ्कका दस गुणा मूल्य कर देता है, उसी प्रकार शिवलिङ्गकी पूजासे शिव भी दाहिने (अनुकूल) होकर मनुष्यको अनन्त सुख-समृद्धि प्रदान करते हैं। अतः मानवको उपर्युक्त शिक्षा ग्रहणकर उनके इस महान् महाशिवरात्रि-महोत्सवको बड़े समारोहपूर्वक मनाना चाहिये।

महाशिवरात्रि के विविध पुराणों एवं ग्रंथो से प्राप्त कथाएं एवं महत्व

महाशिवरात्रि  इस पर्व को सामान्यतः शिव – पार्वती के विवाह के रूप में आम जन जानते एवं मानते है परंतु हमारा धर्मशास्त्र इस पर्व के बारे में क्या कहता है, हमारे धरशास्त्र एवं पुराणों में हमे क्या कथा या महत्व मिलता है महाशिवरात्रि पर्व का आइए जानते है –

शिवरात्रिका अर्थ वह रात्रि है जिसका शिवतत्त्वके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। भगवान् शिवजीकी अतिप्रिय रात्रिको ‘शिवरात्रि’ कहा गया है।

शिवार्चन और जागरण ही इस व्रतकी विशेषता है। इसमें रात्रिभर जागरण एवं शिवाभिषेकका विधान है।

श्रीपार्वतीजीकी जिज्ञासापर भगवान् शिवजीने बताया कि फाल्गुन कृष्णपक्षकी चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है। जो उस दिन उपवास करता है, वह मुझे प्रसन्न कर लेता है। मैं अभिषेक, वस्त्र, धूप, अर्चन तथा पुष्पादिसमर्पणसे उतना प्रसन्न नहीं होता जितना कि व्रतोपवाससे-

फाल्गुने कृष्णपक्षस्य या तिथिः स्याच्चतुर्दशी । तस्यां या तामसी रात्रिः सोच्यते शिवरात्रिका ।। तत्रोपवासं कुर्वाणः प्रसादयति मां ध्रुवम् । न स्नानेन न वस्त्रेण न धूपेन न चार्चया। तुष्यामि न तथा पुष्पैर्यथा तत्रोपवासतः ॥ ईशानसंहितामें बताया गया है कि फाल्गुन कृष्ण
चतुर्दशीकी रात्रिको आदिदेव भगवान् श्रीशिव करोड़ों सूर्योंके समान प्रभावाले लिङ्गरूपमें प्रकट हुए।

फाल्गुनकृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि । शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः ॥

स्कंद पुराण खंड 1- तीर्थ-महात्म्य 266.9 अनुसार, माघ महीने के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि को शिवरात्रि कहा जाता है. 
स्कंद पुराण, ब्राह्म खण्ड-ब्रह्मोत्तर खण्ड अध्याय क्रमांक 2 अनुसार शिवरात्री हर महीने की कृष्ण चतुर्दशी को मनाई जाती है. लेकिन भगवान शिव फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी (शिवरात्रि) में पूर्णतः विद्यमान रहते हैं, इसलिए इसे महाशिवरात्रि कहा जाता है.
ऐसा कोई भी पुराणों में वर्णन नहीं मिलता की शिव-पार्वती की शादी महाशिवरात्रि को हुई थी. लेकिन अगर इस दिन नहीं हुई थी तो किस दिन हुई थी? शिव पुराण पार्वती खंड 35.58 के अनुसार, शिव-पार्वती की शादी मार्गशीष माह के सोमवार को हुई थी और शिव-सती (पार्वती जी पिछला जन्म) की शादी चैत्र माह में हुई थी (शिव पुराण सती खंड 18.20). भगवान शिव ने विष पान किया था महाशिवरात्रि के दिन ऐसा भी कोई पुराणों में उल्लेख नहीं मिलता. तो फिर सत्य क्या है? क्यों मनाई जाती हैं महाशिवरात्रि? आइये जानते हैं-

शिव पुराण विद्योशवरसंहिता 9.1-10 के अनुसार भगवान शिव जी का इस दिवस प्राकट्य हुआ था अर्थात वो निराकार स्वरुप में साकार स्वरूप में आए थे. शिव पुराण विद्योशवरसंहिता 9.15-16 के अनुसार, भगवान शिव खुद कहते है “यत्पुनः स्तम्भरूपेण स्वाविरासमहं पुरा। स कालो मार्गशीर्षे तु स्यादाऋिक्षमर्भकौ” (शिव बोले “पहले मैं जब ज्योतिर्मय स्तम्भरूपां प्रकट हुआ था, उस समय मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र था. अतः जो पुरुष मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र होनेपा मुझ उमापतिका दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंगकी ही झांकी का दर्शन करता है, वह मेरे लिये कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय है”।) लिंग भगवान का निराकार स्वरुप है और जो शिव मूर्ति वो साकार स्वरुप है.

शिवरात्रिव्रतकी वैज्ञानिकता तथा आध्यात्मिकता

ज्योतिषशास्त्रके अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तिथिमें चन्द्रमा सूर्यके समीप होता है। अतः वही समय जीवनरूपी चन्द्रमाका शिवरूपी सूर्यके साथ योग-मिलन होता है। अतः इस चतुर्दशीको शिवपूजा करनेसे जीवको अभीष्टतम पदार्थकी प्राप्ति होती है। यही शिवरात्रिका रहस्य है।

महाशिवरात्रिका पर्व परमात्मा शिवके दिव्य अवतरणका मङ्गलसूचक है। उनके निराकारसे साकाररूपमें अवतरणकी रात्रि ही महाशिवरात्रि कहलाती है। वे हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सरादि विकारोंसे मुक्त करके परभ सुख, शान्ति, ऐश्वर्यादि प्रदान करते हैं।

चार प्रहरकी पूजाका विधान

चार प्रहरमें चार बार पूजाका विधान है। इसमें शिवजीको पञ्चामृतसे स्नान कराकर चन्दन, पुष्प, अक्षत, वस्त्रादिसे शृङ्गार कर आरती करनी चाहिये। रात्रिभर जागरण तथा पञ्चाक्षर-मन्त्रका जप करना चाहिये। रुद्राभिषेक, रुद्राष्टाध्यायी तथा रुद्रीपाठ का भी विधान है।

शिवरात्रि की कथा

प्रथम आख्यान (ईशानसंहिता से)

पद्मकल्पके प्रारम्भमें भगवान् ब्रह्मा जब अण्डज, पिण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज एवं देवताओं आदिकी सृष्टि कर चुके, एक दिन स्वेच्छासे घूमते हुए क्षीरसागर पहुँचे। उन्होंने देखा भगवान् नारायण शुभ्र, श्वेत सहस्रफणमौलि शेषकी शय्यापर शान्त अधलेटे हुए हैं। भूदेवी, श्रीदेवी, श्रीमहालक्ष्मीजी शेषशायीके चरणोंको अपने अङ्कमें लिये चरण-सेवा कर रही हैं। गरुड, नन्द, सुनन्द, पार्षद, गन्धर्व, किन्नर आदि विनम्रतया हाथ जोड़े खड़े हैं। यह देख ब्रह्माजीको अति आश्चर्य हुआ। ब्रह्माजीको गर्व हो गया था कि मैं एकमात्र सृष्टिका मूल कारण हूँ और मैं ही सबका स्वामी, नियन्ता तथा पितामह हूँ। फिर यह वैभवमण्डित कौन यहाँ निश्चिन्त सोया है।

श्रीनारायणको अविचल शयन करते हुए देखकर उन्हें क्रोध आ गया। ब्रह्माजीने समीप जाकर कहा- तुम कौन हो? उठो! देखो, मैं तुम्हारा स्वामी, पिता आया हूँ। शेषशायीने केवल दृष्टि उठायी और मन्द मुसकानसे बोले-वत्स ! तुम्हारा मङ्गल हो। आओ, इस आसनपर बैठो। ब्रह्माजीको और अधिक क्रोध हो आया, झल्लाकर बोले- मैं तुम्हारा रक्षक, जगत्का पितामह हूँ। तुमको मेरा सम्मान करना चाहिये। इसपर भगवान् नारायणने कहा- जगत् मुझमें स्थित है, फिर तुम उसे अपना क्यों कहते हो ? तुम मेरे नाभि-कमलसे पैदा हुए हो, अतः मेरे पुत्र हो। मैं स्रष्टा, मैं स्वामी- यह विवाद दोनोंमें होने लगा। श्रीब्रह्माजीने ‘पाशुपत’ और श्रीविष्णुजीने ‘माहेश्वर’ अस्त्र उठा लिया। दिशाएँ अस्त्रोंके तेजसे जलने लगीं, सृष्टिमें प्रलयकी आशंका हो गयी थी। देवगण भागते हुए कैलास पर्वतपर भगवान् विश्वनाथके पास पहुँचे। अन्तर्यामी भगवान् शिवजी सब समझ गये। देवताओंद्वारा स्तुति करनेपर वे बोले-‘मैं ब्रह्मा-विष्णुके युद्धको जानता हूँ। मैं उसे शान्त करूँगा। ऐसा कहकर भगवान् शङ्कर सहसा दोनोंके मध्यमें अनादि, अनन्त-ज्योतिर्मय स्तम्भके रूपमें प्रकट हुए।’

शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः ॥

माहेश्वर, पाशुपत दोनों अस्त्र शान्त होकर उसी ज्योतिर्लिङ्गमें लीन हो गये।

यह लिङ्ग निष्कल ब्रह्म, निराकार ब्रह्मका प्रतीक है। श्रीविष्णु और श्रीब्रह्माजीने उस लिङ्ग (स्तम्भ)-की पूजा- अर्चना की। यह लिङ्ग फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशीको प्रकट हुआ तभीसे आजतक लिङ्गपूजा निरन्तर चली आ रही है। श्रीविष्णु और श्रीब्रह्माजीने कहा- महाराज ! जब हम दोनों लिङ्गके आदि-अन्तका पता न लगा सके तो आगे मानव आपकी पूजा कैसे करेगा? इसपर कृपालु भगवान् शिव द्वादशज्योतिर्लिङ्गमें विभक्त हो गये। महाशिवरात्रिका यही रहस्य है (ईशानसंहिता) ।

द्वितीय आख्यान (शिवपुराण से)

वाराणसीके वनमें एक भील रहता था। उसका नाम गुरुदुह था। उसका कुटुम्ब बड़ा था। वह बलवान् और क्रूर था। अतः प्रतिदिन वनमें जाकर मृगोंको मारता और वहीं रहकर नाना प्रकारकी चोरियाँ करता था। शुभकारक महाशिवरात्रिके दिन उस भीलके माता-पिता, पत्नी और बच्चोंने भूखसे पीड़ित होकर भोजनकी याचना की। वह तुरंत धनुष लेकर मृगोंके शिकारके लिये सारे वनमें घूमने लगा। दैवयोगसे उस दिन कुछ भी शिकार नहीं मिला और सूर्य अस्त हो गया। वह सोचने लगा- अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ? माता-पिता, पत्नी, बच्चोंकी क्या दशा होगी? कुछ लेकर ही घर जाना चाहिये, यह सोचकर वह व्याध एक जलाशयके समीप पहुँचा कि रात्रिमें कोई-न-कोई जीव यहाँ पानी पीने अवश्य आयेगा-उसीको मारकर घर ले जाऊँगा। वह व्याध किनारेपर स्थित बिल्ववृक्षपर चढ़ गया। पीनेके लिये कमरमें बँधी तूम्बीमें जल भरकर बैठ गया। भूख- प्याससे व्याकुल वह शिकारकी चिन्तामें बैठा रहा।

रात्रिके प्रथम प्रहरमें एक प्यासी हरिणी वहाँ आयी। उसको देखकर व्याधको अति हर्ष हुआ, तुरंत ही उसका वध करनेके लिये उसने अपने धनुषपर एक बाणका संधान किया। ऐसा करते हुए उसके हाथके धक्केसे थोड़ा-सा जल और बिल्वपत्र टूटकर नीचे गिर पड़े। उस वृक्षके नीचे शिवलिङ्ग विराजमान था। वह जल और बिल्वपत्र शिवलिङ्गपर गिर पड़ा। उस जल और बिल्वपत्रसे प्रथम प्रहरकी शिव- पूजा सम्पन्न हो गयी। खड़खड़ाहटकी ध्वनिसे हरिणीने भयसे ऊपरकी ओर देखा। व्याधको देखते ही मृत्युभयसे व्याकुल हो वह बोली-व्याध ! तुम क्या चाहते हो, सच-सच बताओ। व्याधने कहा- मेरे कुटुम्बके लोग भूखे हैं, – अतः तुमको मारकर उनकी भूख मिटाऊँगा। मृगी बोली- – भील! मेरे मांससे तुमको, तुम्हारे कुटुम्बको सुख होगा, इस • अनर्थकारी शरीरके लिये इससे अधिक महान् पुण्यका – कार्य भला और क्या हो सकता है ? परंतु इस समय मेरे ∎ सब बच्चे आश्रममें मेरी बाट जोह रहे होंगे। मैं उन्हें अपनी • बहनको अथवा स्वामीको सौंपकर लौट आऊँगी। मृगीके शपथ खानेपर बड़ी मुश्किलसे व्याधने उसे छोड़ दिया।

द्वितीय प्रहरमें उस हरिणीकी बहन उसीकी राह देखती हुई, ढूँढ़ती हुई जल पीने वहाँ आ गयी। व्याधने उसे देखकर बाणको तरकशसे खींचा। ऐसा करते समय पुनः पहलेकी भाँति शिवलिङ्गपर जल-बिल्वपत्र गिर गये। इस प्रकार दूसरे प्रहरकी पूजा सम्पन्न हो गयी। मृगीने पूछा-व्याध ! यह क्या करते हो? व्याधने पूर्ववत् उत्तर दिया- मैं अपने भूखे कुटुम्बको तृप्त करनेके लिये तुझे मारूँगा। मृगीने कहा- मेरे छोटे-छोटे बच्चे घरमें हैं। अतः मैं उन्हें अपने स्वामीको सौंपकर तुम्हारे पास लौट आऊँगी। मैं वचन देती हूँ। व्याधने उसे भी छोड़ दिया।

व्याधका दूसरा प्रहर भी जागते-जागते बीत गया। इतनेमें ही एक बड़ा हृष्ट-पुष्ट हिरण मृगीको ढूँढ़ता हुआ आया। व्याधके बाण चढ़ानेपर पुनः कुछ जल-बिल्वपत्र लिङ्गपर गिरे। अब तीसरे प्रहरकी पूजा भी हो गयी। मृगने आवाजसे चौंककर व्याधकी ओर देखा और पूछा- क्या करते हो? व्याधने कहा- तुम्हारा वध करूँगा, हरिणने कहा- मेरे बच्चे भूखे हैं। मैं बच्चोंको उनकी माताको सौंपकर तथा उनको धैर्य बँधाकर शीघ्र ही यहाँ लौट आऊँगा। व्याध बोला-जो-जो यहाँ आये वे सब तुम्हारी ही तरह बातें तथा प्रतिज्ञा कर चले गये, परंतु अभीतक नहीं लौटे। शपथ खानेपर उसने हिरणको भी छोड़ दिया। मृग-मृगी सब अपने स्थानपर मिले। तीनों प्रतिज्ञाबद्ध थे, अतः तीनों जानेके लिये हठ करने लगे। अतः उन्होंने बच्चोंको अपने पड़ोसियोंको सौंप दिया और तीनों चल दिये। उन्हें जाते देख बच्चे भी भागकर पीछे-पीछे चले आये। उन सबको एक साथ आया देख व्याधको अति हर्ष हुआ। उसने तरकशसे बाण खींचा जिससे पुनः जल-बिल्वपत्र शिवलिङ्गपर गिर पड़े। इस प्रकार चौथे प्रहरकी पूजा भी सम्पन्न हो गयी।

रात्रिभर शिकारकी चिन्तामें व्याध निर्जल, भोजनरहित जागरण करता रहा। शिवजीका रञ्चमात्र भी चिन्तन नहीं किया। चारों प्रहरकी पूजा अनजानेमें स्वतः ही हो गयी। उस दिन महाशिवरात्रि थी। जिसके प्रभावसे व्याधके सम्पूर्ण पाप तत्काल भस्म हो गये।

इतनेमें ही मृग और दोनों मृगियाँ बोल उठे-व्याध- शिरोमणे ! शीघ्र कृपाकर हमारे शरीरोंको सार्थक करो और अपने कुटुम्ब-बच्चोंको तृप्त करो। व्याधको बड़ा विस्मय हुआ। ये मृग ज्ञानहीन पशु होनेपर भी धन्यहैं, परोपकारी हैं और प्रतिज्ञापालक हैं मैं मनुष्य होकर भी जीवनभर

हिंसा, हत्या और पाप कर अपने कुटुम्बका पालन करता रहा। मैंने जीव-हत्या कर उदरपूर्ति की, अतः मेरे जीवनको धिक्कार है! धिक्कार है !! व्याधने बाणको रोक लिया और कहा- श्रेष्ठ मृगो ! तुम सब जाओ। तुम्हारा जीवन धन्य है! व्याधके ऐसा कहनेपर तुरंत भगवान् शङ्कर लिङ्गसे प्रकट हो गये और उसके शरीरको स्पर्श कर प्रेमसे कहा- वर माँगो। ‘मैंने सब कुछ पा लिया’- यह कहते हुए व्याध उनके चरणोंमें गिर पड़ा। श्रीशिवजीने प्रसन्न होकर उसका ‘गुह’ नाम रख दिया और वरदान दिया कि भगवान् राम एक दिन अवश्य ही तुम्हारे घर पधारेंगे और तुम्हारे साथ मित्रता करेंगे। तुम मोक्ष प्राप्त करोगे। वही व्याध श्रृंगवेरपुरमें निषादराज

‘गुह’ बना, जिसने भगवान् रामका आतिथ्य किया। वे सब मृग भगवान् शङ्करका दर्शन कर मृगयोनिसे मुक्त हो गये। शाप मुक्त हो विमानसे दिव्य धामको चले गये। तबसे अर्बुद पर्वतपर भगवान् शिव व्याधेश्वरके नामसे प्रसिद्ध हुए। दर्शन-पूजन करनेपर वे तत्काल मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं।

यह महाशिवरात्रिव्रत ‘व्रतराज’ के नामसे विख्यात है। यह शिवरात्रि यमराजके शासनको मिटानेवाली है और शिवलोकको देनेवाली है। शास्त्रोक्त विधिसे जो इसका जागरणसहित उपवास करेंगे उन्हें मोक्षकी प्राप्ति होगी। शिवरात्रिके समान पाप और भय मिटानेवाला दूसरा व्रत नहीं है। इसके करनेमात्रसे सब पापोंका क्षय हो जाता है।

(शिवपुराण)