चातुर्मास व्रत पालनीय नियम व उनके फल

  • Home
  • Blog
  • चातुर्मास व्रत पालनीय नियम व उनके फल

चातुर्मास व्रत पालनीय नियम व उनके फल

अथ चातुर्मास्यव्रतम्

द्वादश्यां पारणोत्तरं सायं पूजां कृत्वा चातुर्मास्यव्रतसंकल्पं कुर्यादिति कौस्तुभे एकादश्यामेवेति निर्णयसिन्धुः ।

‘चातुर्मास्यव्रतप्रथमारम्भो गुरुशुक्रास्तादावाशौचादी च न भवति । द्वितीया- द्यारम्भस्तु अस्तादौ आशौचादौ च भवत्येव । चातुर्मास्यव्रतं च शैवादिभिरपि कार्यम् । व्रतग्रहणप्रकारस्तु भगवतो जातीपुष्पादिभिर्महापूजां कृत्वा

सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदम् । विबुद्धे त्वयि वुध्येत प्रसन्नो मे भवाच्युत ॥

इति प्रार्थ्य अग्रे कृताञ्जलिः-

कौस्तुभकार के मत में द्वादशी में पारणा के बाद सायंकाल की पूजा करके चातुर्मास्य व्रत का संकल्प करे। निर्णयसिन्धुकार तो एकादशी में ही संकल्प करने को कहते हैं। पहले पहल चातुर्मास्यत्रत आरम्भ करने पर वह गुरु शुक्र के अस्त आदि और अशौच आदि में नहीं होता है। द्वितीय आरम्भ में तो गुरुशुक्रास्तादि और अशौच आदि में होता ही है। चातुर्मास्यत्रत शैव आदि को भी करना चाहिये। व्रत के ग्रहण का विधान तो यह है भगवान की जुड़ी आदि के फूलों से महती पूजा करके ‘भगवान् जगन्नाथ के सो जाने पर यह संसार सो जाता है, उनके जगने पर जगता है, हे अच्युत भगवान् । मुझ पर प्रसन्न हो’ इस प्रकार आगे अञ्जलि बनाकर प्रार्थना करे।

चतुरो वाषिकान्मासान्देवस्योत्थापनावधि ।

श्रावणे वर्जये शाकं दधि भाद्रपदे तथा ।।

दुग्धमाश्वयुजे मासि कार्तिके द्विदलं तथा ।

इमं करिष्ये नियमं निर्विघ्नं कुरु मेऽच्युत ॥

इदं व्रतं मया देव गृहीतं पुरतस्तव ।

निविघ्नं सिद्धिमायातु प्रसादात्ते रमापते ॥

गृहीतेऽस्मिन्त्रते देव पंचत्वं यदि मे भवेत् ।

तदा भवतु संपूर्ण प्रसादात्ते जनार्दन ।।

इति प्रार्थ्य देवाय शङ्खनाय निवेदयेत् । एतानि व्रतानि नित्यानि ।

वर्ष के चारों महीने भगवान् के जगने से लेकर श्रवण में शाक त्याग दे। भादों में दही न खाय। आश्विन में दूध सेवन न करे और कार्तिक में दाल न खाय। इस नियम को श्रावण से कार्तिक तक मैं करूँगा। हे अच्युत भगवान्। इस मेरे नियम को विध्नरहित कीजिये । हे देव-देव ! इस व्रत को आपके सामने मैंने ग्रहण किया है। हे रुक्ष्मीपते। आपके प्रसाद से मुझे इससे विध्नरहित सिद्धि प्राप्त हो। हे देव । इस व्रत के ग्रहण करने पर यदि मेरा मरण हो जाय तो आप के प्रसाद से हे जनार्दन ! यह व्रत पूरा हो, ऐसी प्रार्थना करके भगवान् को शंख से अध्यं निवेदन करे। ये व्रत नित्य है।

अथ चातुर्मास्ये निषिद्धानि

प्राण्यङ्गचूर्ण चर्मस्थोदकं जम्बीरं यज्ञशेषभिन्नं विष्ण्वनिवेदितान्नं दग्धान्नं मसूरं मांसं चेत्यष्टविधमामिषं वर्जयेत् । निष्पावराजमाषधान्ये लवणशाकं वृन्ताकं कलिङ्गफलम् अनेकबीजफलं निर्बीजं मूलकं कूष्माण्डम् इक्षुदण्डं नूतनबदरीधात्री- फलानि चिञ्चचं मञ्चकादिशयनमनृतुकाले भार्यां परान्नं मधुपटोलं मापकुलित्थ- सितसर्षपांश्च वर्जयेत्वृन्ताकबिल्वोदुम्बरकलिङ्गभिस्सटास्तु वैष्णवैः सर्वमासेषु वाः । अन्यत्र तु गोछागीमहिष्यन्यदुग्धं पर्युषितान्नं द्विजेभ्यः क्रीतारसाभूमि- जलवणं ताम्रपात्रस्थं गव्यं पल्वलजलं स्वार्थपक्कमन्नमित्यामिषगण उक्तः । चतुष्वंपि हि मासेषु हविष्याशी न पापभाक् ।

किसी जीव के अंग का चूर्ण, चमड़े के पात्र का जल, जम्बीरी नीबू, चीजपूर, यज्ञ के बचे हुये अन्न, भगवान् को निवेदन न किया हुआ अन्न, मसूर और मांस, ये आठ प्रकार के मांसगण है। ये आठों चातुर्मास्यव्रत में त्याज्य हैं। निष्या, बोड़ा, नमक, शाक, वेगन, कलिंगफल, बहुत बीजवाला फल, निर्बीजफल, मूली, कुम्हड़ा, ऊँख का डंडा, नया बेर’, आँवले का फल, इमली, पलंग पर सोना, ऋतुभिन्न काल में स्त्रीगमन, दूसरे का अन्न, शहद, परोरा, ऊर्द कुर्थी, और सफेद सरसो का वर्जन करे। वैगन, बेल, गूलर, कलिङ्ग और मिस्सटा तो वैष्णवों को सभी महीनों में त्याज्य है। अन्य ग्रन्थों में तो गाय, बकरी, भैंस से भिन्न का दूध, बासी अन्न, ब्राह्मणों से खरीदे हुये रस, बनाया हुआ मिट्टी का लवण, ताँबे के पात्र में स्थित गाय का दूध, दही एवं घी, गड्ढे का जल और अपने लिये पकाया हुआ अन्न, इन्हें मांसगण कहा है। चारों ही महीनों में हविष्यभोजन करने वाला पापभागी नहीं होता ।

अथ हविष्याणि

ब्रीहिमुद्गयवतिलकङ्ग कलायश्यामाकगोधूमधान्यानि रक्तभिन्नमूलकं सूरणा- दिकन्दः सैन्धवसामुद्रलवणं गव्यानि दधिर्सापर्दुग्धानि पनसाम्रनारीकेलफलानि हरीतकीपिप्पली जीरकशुण्ठी चिञ्श्चाकदलीलवलीधात्रीफलानि गुडेतरेक्षुविकार इत्ये- तानि ‘अतैलपक्कानि गव्यं तक्रं माहिषं घृतं कचित् ।

धान, यव, मूंग, तिल, कँगुनी, कलाय, साँवाँ, गेहूँ, लाल रंग को छोड़ कर मूली, सुरण आदि कन्द, सेंधा और समुद्र का नमक, गाय का दही, दूध और घी, कटहल, आम, नारियल के फल, हरें, पीपल, जीरा, सौंठ, इमली, केला, बड़हर और आँवले का फल, गुड़ को छोड़ कर ऊँख से बने चीनी आदि ये सब चीजें तेल में पकी न हों, गाय का मट्ठा और भैंस केबी को भी कहीं पर हविष्य कहा है।

अथ शाकव्रतांनर्णयः

अहं शाकं वर्जयिष्ये श्रावणे मासि माधव’ इत्यत्र शाकशब्देन लोके प्रसिद्धाः फलमूलपुष्पपत्राङ्कुरकाण्डत्वगादिरूपा वर्ज्या, न तु व्यञ्जनमात्रम् । शुण्ठीहरिद्रा- जीरकादिकमपि वयम् । तत्र तत्कालोद्भवानामातपादिशोषितकालान्तरो- द्भवानां च सर्वशाकानां वर्जनं कार्यम् । अथैषां चातुर्मास्यव्रतानां समाप्तौ कार्तिक्यां दानानि तत्रैव वक्ष्यन्ते ।

‘मैं सावन के महीने में शाक का त्याग करूँगा’ इस वचन में शाकशब्द से संसार में प्रसिद्ध फळ, मूत्र, फूल, अङ्कुर, डण्ठल, छाल आदि का त्याग करे, न कि व्यञ्जनमात्र का। सौंठ, जीरा, ल्दी आदि भी छोड़ दे। इसमें सामयिक शाकों को घाम में सुखा कर दूसरे समय में भी होने वाले शाकों को छोड़ देना चाहिये। चातुर्मास्यव्रतों के समाप्त होने पर कार्तिक पूर्णिमा के दानों को वहीं कहेंगे ।

 

चातुर्मास व्रत फल

भगवान् विष्णुके शयन करनेपर चातुर्मास्यमें जो कोई नियम पालित होता है, वह अनन्त फल देनेवाला होता है। अतः विज्ञ पुरुषको प्रयत्न करके चातुर्मासमें कोई नियम ग्रहण करना चाहिये। भगवान् विष्णुके संतोषके लिये नियम, जप, होम, स्वाध्याय अथवा व्रतका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। जो मानव भगवान् वासुदेवके उद्देश्यसे केवल शाकाहार करके वर्षाके चार महीने व्यतीत करता है, वह धनी होता है। जो भगवान् विष्णुके शयनकालमें प्रतिदिन नक्षत्रोंका दर्शन करके ही एक बार भोजन करता है, वह धनवान्, रूपवान् और माननीय होता है। जो एक दिनका अन्तर देकर भोजन करते हुए चौमासा व्यतीत करता है, वह सदा वैकुण्ठधाममें निवास करता है।

भगवान् जनार्दनके शयन करनेपर जो छठे दिन भोजन करता है, वह राजसूय तथा अश्वमेधयज्ञोंका सम्पूर्ण फल पाता है। जो सदा तीन रात उपवास करके चौथे दिन भोजन करते हुए चौमासा बिताता है, वह इस संसारमें फिर किसी प्रकारका जन्म नहीं लेता। जो श्रीहरिके शयनकालमें व्रतपरायण होकर चौमासा व्यतीत करता है, वह अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता है। जो भगवान् मधुसूदनके शयन करनेपर अयाचित अन्नका भोजन करता है, उसे अपने भाई- बन्धुओंसे कभी वियोग नहीं होता। जो मानव ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक चौमासा व्यतीत करता है, वह श्रेष्ठ विमानपर बैठकर स्वेच्छासे स्वर्गलोकमें जाता है। जो चौमासेभर नमकीन वस्तुओं एवं नमकको छोड़ देता है, उसके सभी पूर्तकर्म सफल होते हैं। जो चौमासेमें प्रतिदिन स्वाहान्त विष्णुसूक्तके मन्त्रोंद्वारा तिल और चावलकी आहुति देता है, वह कभी रोगी नहीं होता।

चातुर्मास्यमें प्रतिदिन स्नान करके जो भगवान् विष्णुके आगे खड़ा हो ‘पुरुषसूक्त’का जप करता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है। जो अपने हाथमें फल लेकर मौनभावसे भगवान् विष्णुकी एक सौ आठ परिक्रमा करता है, वह पापसे लिप्त नहीं होता। जो अपनी शक्तिके अनुसार चौमासेमें- विशेषतः कार्तिकमासमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको मिष्टान्न भोजन कराता है, वह अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता है।

वर्षाके चार महीनोंतक नित्यप्रति वेदोंके स्वाध्यायसे जो भगवान् विष्णुकी आराधना करता है, वह सर्वदा विद्वान् होता है। जो चौमासेभर भगवान्के मन्दिरमें रात-दिन नृत्य- गीत आदिका आयोजन करता है, वह गन्धर्वभावको प्राप्त होता है। यदि चार महीनोंतक नियमका पालन करना सम्भव न हो तो मात्र कार्तिकमासमें ही सब नियमोंका पालन करना चाहिये। जिसने कुछ उपयोगी वस्तुओंको चौमासेभर त्याग देनेका नियम लिया हो, उसे वे वस्तुएँ ब्राह्मणको दान करनी चाहिये। ऐसा करनेसे ही वह त्याग सफल होता है। जो मनुष्य नियम, व्रत अथवा जपके बिना ही चौमासा बिताता है, वह मूर्ख है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *