कल है महाशिवरात्रि का व्रत, जानिए क्या है उपवास के बाधक बारह दोष, किस प्रकार किया जाए व्रत और किस विधि से की जय भगवान सर्वेश्वर की पूजन –
उपवासके बाधक बारह दोष
क्रोधः कामो लोभमोहौ विधित्साकृपासूये मानशोकौ स्पृहा च।
ईर्ष्या जुगुप्सा च मनुष्यदोषा वर्ज्याः सदा द्वादशैते नराणाम् ।।
एकैकः पर्युपास्ते ह मनुष्यान् मनुजर्षभ ।
लिप्समानोऽन्तरं तेषां मृगाणामिव लुब्धकः ॥
‘काम, क्रोध, लोभ, मोह, असंतोष, निर्दयता, असूया, अभिमान, शोक, स्पृहा, ईर्ष्या और निन्दा-मनुष्योंमें रहनेवाले ये बारह दोष सदा ही त्याग देने योग्य हैं। नरश्रेष्ठ ! जैसे व्याध मृगोंको मारनेका अवसर देखता हुआ उनकी टोहमें लगा रहता है, उसी प्रकार इनमेंसे एक-एक दोष मनुष्योंका छिद्र देखकर उनपर आक्रमण कर देते हैं।’
व्रतका महत्त्व
शिवपुराणकी कोटिरुद्रसंहितामें बताया गया है कि शिवरात्रिव्रत करनेसे व्यक्तिको भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्राप्त होते हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा पार्वतीजीके पूछनेपर भगवान् सदाशिवने बताया कि शिवरात्रिव्रत करनेसे महान् पुण्यकी प्राप्ति होती है। मोक्षार्थीको मोक्षकी प्राप्ति करानेवाले चार व्रतोंका नियमपूर्वक पालन करना चाहिये। ये चार व्रत हैं- १- भगवान् शिवकी पूजा, २- रुद्रमन्त्रोंका जप, ३-शिवमन्दिरमें उपवास तथा ४-काशीमें देहत्याग । शिवपुराणमें मोक्षके चार सनातन मार्ग बताये गये हैं। इन चारोंमें भी शिवरात्रिव्रतका विशेष महत्त्व है। अतः इसे अवश्य करना चाहिये। यह सभीके लिये धर्मका उत्तम साधन है। निष्काम अथवा सकामभावसे सभी मनुष्यों, वर्णों, आश्रमों, स्त्रियों, बालकों तथा देवताओं आदिके लिये यह महान् व्रत परम हितकारक माना गया है। प्रत्येक मासके शिवरात्रिव्रतोंमें भी फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशीमें होनेवाले महाशिवरात्रिव्रतका शिवपुराणमें विशेष माहात्म्य बताया गया है।
रात्रि ही क्यों ?
अन्य देवताओंका पूजन, व्रत आदि जबकि प्रायः दिनमें ही होता है तब भगवान् शङ्करको रात्रि ही क्यों प्रिय हुई और वह भी फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशीतिथि ही क्यों ? इस जिज्ञासाका समाधान विद्वानोंने बताया है कि ‘भगवान् शङ्कर संहारशक्ति और तमोगुणके अधिष्ठाता हैं, अतः तमोमयी रात्रिसे उनका स्नेह (लगाव) होना स्वाभाविक ही है। रात्रि संहारकालकी प्रतिनिधि है, उसका आगमन होते ही सर्वप्रथम प्रकाशका संहार, जीवोंकी दैनिक कर्मचेष्टाओंका संहार और अन्तमें निद्राद्वारा चेतनताका ही संहार होकर सम्पूर्ण विश्व संहारिणी रात्रिकी गोदमें अचेतन होकर गिर जाता है। ऐसी दशामें प्राकृतिक दृष्टिसे शिवका रात्रिप्रिय होना सहज ही हृदयङ्गम हो जाता है। यही कारण है कि भगवान् शङ्करकी आराधना न केवल इस रात्रिमें ही वरन् सदैव प्रदोष ( रात्रिके प्रारम्भ होने) के समयमें की जाती है।’
शिवरात्रिका कृष्णपक्षमें होना भी साभिप्राय ही है। शुक्लपक्षमें चन्द्रमा पूर्ण (सबल) होता है और कृष्णपक्षमें क्षीण। उसकी वृद्धिके साथ-साथ संसारके सम्पूर्ण रसवान् पदार्थोंमें वृद्धि और क्षयके साथ-साथ उनमें क्षीणता होना स्वाभाविक एवं प्रत्यक्ष है। क्रमशः घटते-घटते वह चन्द्रमा अमावास्याको बिलकुल क्षीण हो जाता है। चराचर जगत्के यावन्मात्र मनके अधिष्ठाता उस चन्द्रके क्षीण हो जानेसे उसका प्रभाव अण्ड-पिण्डवादके अनुसार सम्पूर्ण भूमण्डलके प्राणियोंपर भी पड़ता है और उन्मना जीवोंके अन्तःकरणमें तामसी शक्तियाँ प्रबुद्ध होकर अनेक प्रकारके नैतिक एवं सामाजिक अपराधोंका कारण बनती हैं। इन्हीं शक्तियोंका अपर नाम आध्यात्मिक भाषामें भूत-प्रेतादि है और शिवको इनका नियामक (नियन्त्रक) माना जाता है। दिनमें यद्यपि जगदात्मा सूर्यकी स्थितिसे आत्मतत्त्वकी जागरूकताके कारण ये तामसी शक्तियाँ अपना विशेष प्रभाव नहीं दिखा पाती हैं, किंतु चन्द्रविहीन अन्धकारमयी रात्रिके आगमनके साथ ही वे अपना प्रभाव दिखाने लगती हैं। इसलिये जैसे पानी आनेसे पहले ही पुल बाँधा जाता है, उसी प्रकार इस चन्द्रक्षय (अमावास्या)-तिथिके आनेसे सद्य:पूर्व ही उन सम्पूर्ण तामसी वृत्तियोंके उपशमनार्थ इन वृत्तियोंके एकमात्र अधिष्ठाता भगवान् आशुतोषकी आराधना करनेका विधान शास्त्रकारोंने किया है। विशेषतया कृष्णचतुर्दशीकी रात्रिमें शिवाराधनाका रहस्य है।
उपवास-रात्रिजागरण क्यों ?
ऋषि-महर्षियोंने समस्त आध्यात्मिक अनुष्ठानोंमें उपवासको महत्त्वपूर्ण माना है। गीता (२।५९)-की इस उक्ति ‘विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः’- के अनुसार उपवास विषय-निवृत्तिका अचूक साधन है। अतः आध्यात्मिक साधनाके लिये उपवास करना परमावश्यक है। उपवासके साथ रात्रिजागरणके महत्त्वपर गीता (२।६९) का यह कथन अत्यन्त प्रसिद्ध है- ‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।’ इसका सीधा तात्पर्य यही है कि उपवासादिद्वारा इन्द्रियों और मनपर नियन्त्रण करनेवाला संयमी व्यक्ति ही रात्रिमें जागकर अपने लक्ष्यको प्राप्त करनेके लिये प्रयत्नशील हो सकता है। अतः शिवोपासनाके लिये उपवास एवं रात्रिजागरणके अतिरिक्त और कौन साधन उपयुक्त हो सकता है ? रात्रिप्रिय शिवसे भेंट करनेका समय रात्रिके अलावा और कौन समय हो सकता है ? इन्हीं सब कारणोंसे इस महान् व्रतमें व्रतीजन उपवासके साथ रात्रिमें जागकर शिवपूजा करते हैं।
पूजाविधि
शिवपुराणके अनुसार व्रती पुरुषको प्रातःकाल उठकर स्नान-संध्या आदि कर्मसे निवृत्त होनेपर मस्तकपर भस्मका त्रिपुण्ड्र तिलक और गलेमें रुद्राक्षमाला धारण कर शिवालयमें जाकर शिवलिङ्गका विधिपूर्वक पूजन एवं शिवको नमस्कार करना चाहिये। तत्पश्चात् उसे श्रद्धापूर्वक व्रतका इस प्रकार संकल्प करना चाहिये-
शिवरात्रिव्रतं ह्येतत् करिष्येऽहं महाफलम्।
निर्विघ्नमस्तु मे चात्र त्वत्प्रसादाज्जगत्पते ॥
यह कहकर हाथमें लिये पुष्पाक्षत, जल आदिको छोड़नेके पश्चात् यह श्लोक पढ़ना चाहिये- देवदेव महादेव नीलकण्ठ नमोऽस्तु ते। कर्तुमिच्छाम्यहं देव शिवरात्रिव्रतं तव ॥ तव प्रसादाद्देवेश निर्विघ्नेन भवेदिति । कामाद्याः शत्रवो मां वै पीडां कुर्वन्तु नैव हि ॥
(शिवपु० कोटिरुद्रसंहिता ३८। २८-२९)
अर्थात् हे देवदेव । हे महादेव ! हे नीलकण्ठ ! आपको नमस्कार है। हे देव। मैं आपका शिवरात्रिव्रत करना चाहता हूँ। हे देवेश्वर! आपकी कृपासे यह व्रत निर्विघ्न पूर्ण हो और काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रु मुझे पीडित न करें।
रात्रिपूजा
दिनभर अधिकारानुसार शिवमन्त्रका यथाशक्ति जप करना चाहिये अर्थात् जो द्विज हैं और जिनका विधिवत् यज्ञोपवीत-संस्कार हुआ है तथा नियमपूर्वक यज्ञोपवीत धारण करते हैं, उन्हें ‘ॐ नमः शिवाय’ मन्त्रका जप करना चाहिये, परंतु जो द्विजेतर अनुपनीत एवं स्त्रियाँ हैं, उन्हें प्रणवरहित ‘शिवाय नमः’ मन्त्रका ही जप करना चाहिये। रुग्ण, अशक्त और वृद्धजन दिनमें फलाहार ग्रहणकर रात्रि- पूजा कर सकते हैं, वैसे यथाशक्ति बिना फलाहार ग्रहण किये रात्रिपूजा करना उत्तम है। रात्रिके चारों प्रहरोंकी पूजाका विधान शास्त्रकारोंने किया है। सायंकाल स्नान करके किसी शिवमन्दिरमें जाकर अथवा घरपर ही (यदि नर्मदेश्वर अथवा अन्य इसी प्रकारका शिवलिङ्ग हो) सुविधानुसार पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर और तिलक एवं रुद्राक्ष धारण करके पूजाका इस प्रकार संकल्प करे-देशकालका संकीर्तन करनेके अनन्तर बोले- ‘ममाखिलपापक्षयपूर्वकसकलाभीष्टसिद्धये शिवप्रीत्यर्थं च शिवपूजनमहं करिष्ये।’ अच्छा तो यह है कि किसी दैदिक विद्वान् ब्राह्मणके निर्देशनमें वैदिक मन्त्रोंसे रुद्राभिषेकका अनुष्ठान कराया जाय।
व्रतीको पूजाकी सामग्री अपने पासमें रखनी चाहिये- ऋतुकालके फल-पुष्प, गन्ध (चन्दन), बिल्वपत्र, धतूरा, धूप, दीप और नैवेद्य आदिद्वारा चारों प्रहरकी पूजा करनी चाहिये। दूध, दही, घी, शहद और शक्करसे अलग-अलग तथा सबको एक साथ मिलाकर पश्चामृतसे शिवको स्नान कराकर जलधारासे उनका अभिषेक करना चाहिये। चारों पूजनोंमें पञ्चोपचार अथवा षोडशोपचार, यथालब्धोपचारसे पूजन करते समय शिवपञ्चाक्षर (‘नमः शिवाय’)-मन्त्रसे अथवा रुद्रपाठसे भगवान्का जलाभिषेक करना चाहिये। भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महान्, भीम और ईशान- इन आठ नामोंसे पुष्पाञ्जलि अर्पितकर भगवान्की आरती और परिक्रमा करनी चाहिये। अन्तमें भगवान् शम्भुसे इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये-
नियमो यो महादेव कृतश्चैव त्वदाज्ञया ।
विसृज्यते मया स्वामिन् व्रतं जातमनुत्तमम् ॥ व्रतेनानेन देवेश यथाशक्तिकृतेन च। सन्तुष्टो भव शर्वाद्य कृपां कुरु ममोपरि ॥
(शिवपुराण, कोटिरुद्रसंहिता ३८।४२-४३)
अर्थात् ‘हे महादेव! आपकी आज्ञासे मैंने जो व्रत किया, हे स्वामिन् ! वह परम उत्तम व्रत पूर्ण हो गया। अतः अब उसका विसर्जन करता हूँ। हे देवेश्वर शर्व! यथाशक्ति किये गये इस व्रतसे आप आज मुझपर कृपा करके संतुष्ट हों।’
अशक्त होनेपर यदि चारों प्रहरकी पूजा न हो सके तो पहले प्रहरकी पूजा अवश्य करनी चाहिये और अगले दिन प्रातःकाल पुनः स्नानकर भगवान् शङ्करकी पूजा करनेके पश्चात् व्रतकी पारणा करनी चाहिये। स्कन्दपुराणके अनुसार इस प्रकार अनुष्ठान करते हुए शिवजीका पूजन, जागरण और उपवास करनेवाले मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता।
इस महान् पर्वके विषयमें एक आख्यानके अनुसार शिवरात्रिके दिन पूजन करती हुई किसी स्त्रीका आभूषण चुरा लेनेके अपराधमें मारा गया कोई व्यक्ति इसलिये शिवजीकी कृपासे सद्गतिको प्राप्त हुआ; क्योंकि चोरी करनेके प्रयासमें वह आठ प्रहर भूखा-प्यासा और जागता रहा। इस कारण अनायास ही व्रत हो जानेसे शिवजीने उसे सद्गति प्रदान कर दी।
इस व्रतकी महिमाका पूर्णरूपसे वर्णन करना मानवशक्तिसे बाहर है। अतः कल्याणके इच्छुक सभी मनुष्योंको यह व्रत करना चाहिये।
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशीका रहस्य
जहाँतक प्रत्येक मासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीके शिवरात्रि कहलानेकी बात है, वे सभी शिवरात्रि ही कहलाती हैं और पञ्चाङ्गोंमें उन्हें इसी नामसे लिखा जाता है, परंतु फाल्गुनकी शिवरात्रि महाशिवरात्रिके नामसे पुकारी जाती है। जिस प्रकार अमावास्याके दुष्प्रभावसे बचनेके लिये उससे ठीक एक दिन पूर्व चतुर्दशीको यह उपासना की जाती है, उसी प्रकार क्षय होते हुए वर्षके अन्तिम मास चैत्रसे ठीक एक मास पूर्व फाल्गुनमें ही इसका विधान शास्त्रोंमें मिलता है जो कि सर्वथा युक्तिसंगत ही है। साथ ही रुद्रोंके एकादश संख्यात्मक होनेके कारण भी इस पर्वका ११वें मास (फाल्गुन)-में सम्पन्न होना इस व्रतोत्सवके रहस्यपर प्रकाश डालता है।
पर्वका संदेश
भगवान् शङ्करमें अनुपम सामञ्जस्य, अद्भुत समन्वय और उत्कृष्ट सद्भावके दर्शन होनेसे हमें उनसे शिक्षा ग्रहणकर विश्व-कल्याणके महान् कार्यमें प्रवृत्त होना चाहिये-यही इस परम पावन पर्वका मानवजातिके प्रति दिव्य संदेश है। शिव अर्धनारीश्वर होकर भी कामविजेता हैं, गृहस्थ होते हुए भी परम विरक्त हैं, हलाहल पान करनेके कारण नीलकण्ठ होकर भी विषसे अलिप्त हैं, ऋद्धि-सिद्धियोंके स्वामी होकर भी उनसे विलग हैं, उग्र होते हुए भी सौम्य हैं, अकिंचन होते हुए भी सर्वेश्वर हैं, भयंकर विषधरनाग और सौम्य चन्द्रमा दोनों ही उनके आभूषण हैं, मस्तकमें प्रलयकालीन अग्नि और सिरपर परम शीतल गङ्गाधारा उनका अनुपम शृङ्गार है। उनके यहाँ वृषभ और सिंहका तथा मयूर एवं सर्पका सहज वैर भुलाकर साथ-साथ क्रीडा करना समस्त विरोधी भावोंके विलक्षण समन्वयकी शिक्षा देता है। इससे विश्वको सह-अस्तित्व अपनानेकी अद्भुत शिक्षा मिलती है।
इसी प्रकार उनका श्रीविग्रह-शिवलिङ्ग ब्रह्माण्ड एवं निराकार ब्रह्मका प्रतीक होनेके कारण सभीके लिये पूजनीय है। जिस प्रकार निराकार ब्रह्म रूप, रंग, आकार आदिसे रहित होता है उसी प्रकार शिवलिङ्ग भी है। जिस प्रकार गणितमें शून्य कुछ न होते हुए भी सब कुछ होता है, किसी भी अङ्कके दाहिने होकर जिस प्रकार यह उस अङ्कका दस गुणा मूल्य कर देता है, उसी प्रकार शिवलिङ्गकी पूजासे शिव भी दाहिने (अनुकूल) होकर मनुष्यको अनन्त सुख-समृद्धि प्रदान करते हैं। अतः मानवको उपर्युक्त शिक्षा ग्रहणकर उनके इस महान् महाशिवरात्रि-महोत्सवको बड़े समारोहपूर्वक मनाना चाहिये।