महाशिवरात्रि इस पर्व को सामान्यतः शिव – पार्वती के विवाह के रूप में आम जन जानते एवं मानते है परंतु हमारा धर्मशास्त्र इस पर्व के बारे में क्या कहता है, हमारे धरशास्त्र एवं पुराणों में हमे क्या कथा या महत्व मिलता है महाशिवरात्रि पर्व का आइए जानते है –
शिवरात्रिका अर्थ वह रात्रि है जिसका शिवतत्त्वके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। भगवान् शिवजीकी अतिप्रिय रात्रिको ‘शिवरात्रि’ कहा गया है।
शिवार्चन और जागरण ही इस व्रतकी विशेषता है। इसमें रात्रिभर जागरण एवं शिवाभिषेकका विधान है।
श्रीपार्वतीजीकी जिज्ञासापर भगवान् शिवजीने बताया कि फाल्गुन कृष्णपक्षकी चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है। जो उस दिन उपवास करता है, वह मुझे प्रसन्न कर लेता है। मैं अभिषेक, वस्त्र, धूप, अर्चन तथा पुष्पादिसमर्पणसे उतना प्रसन्न नहीं होता जितना कि व्रतोपवाससे-
फाल्गुने कृष्णपक्षस्य या तिथिः स्याच्चतुर्दशी । तस्यां या तामसी रात्रिः सोच्यते शिवरात्रिका ।। तत्रोपवासं कुर्वाणः प्रसादयति मां ध्रुवम् । न स्नानेन न वस्त्रेण न धूपेन न चार्चया। तुष्यामि न तथा पुष्पैर्यथा तत्रोपवासतः ॥ ईशानसंहितामें बताया गया है कि फाल्गुन कृष्ण
चतुर्दशीकी रात्रिको आदिदेव भगवान् श्रीशिव करोड़ों सूर्योंके समान प्रभावाले लिङ्गरूपमें प्रकट हुए।
फाल्गुनकृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि । शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः ॥
स्कंद पुराण खंड 1- तीर्थ-महात्म्य 266.9 अनुसार, माघ महीने के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि को शिवरात्रि कहा जाता है.
स्कंद पुराण, ब्राह्म खण्ड-ब्रह्मोत्तर खण्ड अध्याय क्रमांक 2 अनुसार शिवरात्री हर महीने की कृष्ण चतुर्दशी को मनाई जाती है. लेकिन भगवान शिव फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी (शिवरात्रि) में पूर्णतः विद्यमान रहते हैं, इसलिए इसे महाशिवरात्रि कहा जाता है.
ऐसा कोई भी पुराणों में वर्णन नहीं मिलता की शिव-पार्वती की शादी महाशिवरात्रि को हुई थी. लेकिन अगर इस दिन नहीं हुई थी तो किस दिन हुई थी? शिव पुराण पार्वती खंड 35.58 के अनुसार, शिव-पार्वती की शादी मार्गशीष माह के सोमवार को हुई थी और शिव-सती (पार्वती जी पिछला जन्म) की शादी चैत्र माह में हुई थी (शिव पुराण सती खंड 18.20). भगवान शिव ने विष पान किया था महाशिवरात्रि के दिन ऐसा भी कोई पुराणों में उल्लेख नहीं मिलता. तो फिर सत्य क्या है? क्यों मनाई जाती हैं महाशिवरात्रि? आइये जानते हैं-
शिव पुराण विद्योशवरसंहिता 9.1-10 के अनुसार भगवान शिव जी का इस दिवस प्राकट्य हुआ था अर्थात वो निराकार स्वरुप में साकार स्वरूप में आए थे. शिव पुराण विद्योशवरसंहिता 9.15-16 के अनुसार, भगवान शिव खुद कहते है “यत्पुनः स्तम्भरूपेण स्वाविरासमहं पुरा। स कालो मार्गशीर्षे तु स्यादाऋिक्षमर्भकौ” (शिव बोले “पहले मैं जब ज्योतिर्मय स्तम्भरूपां प्रकट हुआ था, उस समय मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र था. अतः जो पुरुष मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र होनेपा मुझ उमापतिका दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंगकी ही झांकी का दर्शन करता है, वह मेरे लिये कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय है”।) लिंग भगवान का निराकार स्वरुप है और जो शिव मूर्ति वो साकार स्वरुप है.
शिवरात्रिव्रतकी वैज्ञानिकता तथा आध्यात्मिकता
ज्योतिषशास्त्रके अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तिथिमें चन्द्रमा सूर्यके समीप होता है। अतः वही समय जीवनरूपी चन्द्रमाका शिवरूपी सूर्यके साथ योग-मिलन होता है। अतः इस चतुर्दशीको शिवपूजा करनेसे जीवको अभीष्टतम पदार्थकी प्राप्ति होती है। यही शिवरात्रिका रहस्य है।
महाशिवरात्रिका पर्व परमात्मा शिवके दिव्य अवतरणका मङ्गलसूचक है। उनके निराकारसे साकाररूपमें अवतरणकी रात्रि ही महाशिवरात्रि कहलाती है। वे हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सरादि विकारोंसे मुक्त करके परभ सुख, शान्ति, ऐश्वर्यादि प्रदान करते हैं।
चार प्रहरकी पूजाका विधान
चार प्रहरमें चार बार पूजाका विधान है। इसमें शिवजीको पञ्चामृतसे स्नान कराकर चन्दन, पुष्प, अक्षत, वस्त्रादिसे शृङ्गार कर आरती करनी चाहिये। रात्रिभर जागरण तथा पञ्चाक्षर-मन्त्रका जप करना चाहिये। रुद्राभिषेक, रुद्राष्टाध्यायी तथा रुद्रीपाठ का भी विधान है।
शिवरात्रि की कथा
प्रथम आख्यान (ईशानसंहिता से)
पद्मकल्पके प्रारम्भमें भगवान् ब्रह्मा जब अण्डज, पिण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज एवं देवताओं आदिकी सृष्टि कर चुके, एक दिन स्वेच्छासे घूमते हुए क्षीरसागर पहुँचे। उन्होंने देखा भगवान् नारायण शुभ्र, श्वेत सहस्रफणमौलि शेषकी शय्यापर शान्त अधलेटे हुए हैं। भूदेवी, श्रीदेवी, श्रीमहालक्ष्मीजी शेषशायीके चरणोंको अपने अङ्कमें लिये चरण-सेवा कर रही हैं। गरुड, नन्द, सुनन्द, पार्षद, गन्धर्व, किन्नर आदि विनम्रतया हाथ जोड़े खड़े हैं। यह देख ब्रह्माजीको अति आश्चर्य हुआ। ब्रह्माजीको गर्व हो गया था कि मैं एकमात्र सृष्टिका मूल कारण हूँ और मैं ही सबका स्वामी, नियन्ता तथा पितामह हूँ। फिर यह वैभवमण्डित कौन यहाँ निश्चिन्त सोया है।
श्रीनारायणको अविचल शयन करते हुए देखकर उन्हें क्रोध आ गया। ब्रह्माजीने समीप जाकर कहा- तुम कौन हो? उठो! देखो, मैं तुम्हारा स्वामी, पिता आया हूँ। शेषशायीने केवल दृष्टि उठायी और मन्द मुसकानसे बोले-वत्स ! तुम्हारा मङ्गल हो। आओ, इस आसनपर बैठो। ब्रह्माजीको और अधिक क्रोध हो आया, झल्लाकर बोले- मैं तुम्हारा रक्षक, जगत्का पितामह हूँ। तुमको मेरा सम्मान करना चाहिये। इसपर भगवान् नारायणने कहा- जगत् मुझमें स्थित है, फिर तुम उसे अपना क्यों कहते हो ? तुम मेरे नाभि-कमलसे पैदा हुए हो, अतः मेरे पुत्र हो। मैं स्रष्टा, मैं स्वामी- यह विवाद दोनोंमें होने लगा। श्रीब्रह्माजीने ‘पाशुपत’ और श्रीविष्णुजीने ‘माहेश्वर’ अस्त्र उठा लिया। दिशाएँ अस्त्रोंके तेजसे जलने लगीं, सृष्टिमें प्रलयकी आशंका हो गयी थी। देवगण भागते हुए कैलास पर्वतपर भगवान् विश्वनाथके पास पहुँचे। अन्तर्यामी भगवान् शिवजी सब समझ गये। देवताओंद्वारा स्तुति करनेपर वे बोले-‘मैं ब्रह्मा-विष्णुके युद्धको जानता हूँ। मैं उसे शान्त करूँगा। ऐसा कहकर भगवान् शङ्कर सहसा दोनोंके मध्यमें अनादि, अनन्त-ज्योतिर्मय स्तम्भके रूपमें प्रकट हुए।’
शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः ॥
माहेश्वर, पाशुपत दोनों अस्त्र शान्त होकर उसी ज्योतिर्लिङ्गमें लीन हो गये।
यह लिङ्ग निष्कल ब्रह्म, निराकार ब्रह्मका प्रतीक है। श्रीविष्णु और श्रीब्रह्माजीने उस लिङ्ग (स्तम्भ)-की पूजा- अर्चना की। यह लिङ्ग फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशीको प्रकट हुआ तभीसे आजतक लिङ्गपूजा निरन्तर चली आ रही है। श्रीविष्णु और श्रीब्रह्माजीने कहा- महाराज ! जब हम दोनों लिङ्गके आदि-अन्तका पता न लगा सके तो आगे मानव आपकी पूजा कैसे करेगा? इसपर कृपालु भगवान् शिव द्वादशज्योतिर्लिङ्गमें विभक्त हो गये। महाशिवरात्रिका यही रहस्य है (ईशानसंहिता) ।
द्वितीय आख्यान (शिवपुराण से)
वाराणसीके वनमें एक भील रहता था। उसका नाम गुरुदुह था। उसका कुटुम्ब बड़ा था। वह बलवान् और क्रूर था। अतः प्रतिदिन वनमें जाकर मृगोंको मारता और वहीं रहकर नाना प्रकारकी चोरियाँ करता था। शुभकारक महाशिवरात्रिके दिन उस भीलके माता-पिता, पत्नी और बच्चोंने भूखसे पीड़ित होकर भोजनकी याचना की। वह तुरंत धनुष लेकर मृगोंके शिकारके लिये सारे वनमें घूमने लगा। दैवयोगसे उस दिन कुछ भी शिकार नहीं मिला और सूर्य अस्त हो गया। वह सोचने लगा- अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ? माता-पिता, पत्नी, बच्चोंकी क्या दशा होगी? कुछ लेकर ही घर जाना चाहिये, यह सोचकर वह व्याध एक जलाशयके समीप पहुँचा कि रात्रिमें कोई-न-कोई जीव यहाँ पानी पीने अवश्य आयेगा-उसीको मारकर घर ले जाऊँगा। वह व्याध किनारेपर स्थित बिल्ववृक्षपर चढ़ गया। पीनेके लिये कमरमें बँधी तूम्बीमें जल भरकर बैठ गया। भूख- प्याससे व्याकुल वह शिकारकी चिन्तामें बैठा रहा।
रात्रिके प्रथम प्रहरमें एक प्यासी हरिणी वहाँ आयी। उसको देखकर व्याधको अति हर्ष हुआ, तुरंत ही उसका वध करनेके लिये उसने अपने धनुषपर एक बाणका संधान किया। ऐसा करते हुए उसके हाथके धक्केसे थोड़ा-सा जल और बिल्वपत्र टूटकर नीचे गिर पड़े। उस वृक्षके नीचे शिवलिङ्ग विराजमान था। वह जल और बिल्वपत्र शिवलिङ्गपर गिर पड़ा। उस जल और बिल्वपत्रसे प्रथम प्रहरकी शिव- पूजा सम्पन्न हो गयी। खड़खड़ाहटकी ध्वनिसे हरिणीने भयसे ऊपरकी ओर देखा। व्याधको देखते ही मृत्युभयसे व्याकुल हो वह बोली-व्याध ! तुम क्या चाहते हो, सच-सच बताओ। व्याधने कहा- मेरे कुटुम्बके लोग भूखे हैं, – अतः तुमको मारकर उनकी भूख मिटाऊँगा। मृगी बोली- – भील! मेरे मांससे तुमको, तुम्हारे कुटुम्बको सुख होगा, इस • अनर्थकारी शरीरके लिये इससे अधिक महान् पुण्यका – कार्य भला और क्या हो सकता है ? परंतु इस समय मेरे ∎ सब बच्चे आश्रममें मेरी बाट जोह रहे होंगे। मैं उन्हें अपनी • बहनको अथवा स्वामीको सौंपकर लौट आऊँगी। मृगीके शपथ खानेपर बड़ी मुश्किलसे व्याधने उसे छोड़ दिया।
द्वितीय प्रहरमें उस हरिणीकी बहन उसीकी राह देखती हुई, ढूँढ़ती हुई जल पीने वहाँ आ गयी। व्याधने उसे देखकर बाणको तरकशसे खींचा। ऐसा करते समय पुनः पहलेकी भाँति शिवलिङ्गपर जल-बिल्वपत्र गिर गये। इस प्रकार दूसरे प्रहरकी पूजा सम्पन्न हो गयी। मृगीने पूछा-व्याध ! यह क्या करते हो? व्याधने पूर्ववत् उत्तर दिया- मैं अपने भूखे कुटुम्बको तृप्त करनेके लिये तुझे मारूँगा। मृगीने कहा- मेरे छोटे-छोटे बच्चे घरमें हैं। अतः मैं उन्हें अपने स्वामीको सौंपकर तुम्हारे पास लौट आऊँगी। मैं वचन देती हूँ। व्याधने उसे भी छोड़ दिया।
व्याधका दूसरा प्रहर भी जागते-जागते बीत गया। इतनेमें ही एक बड़ा हृष्ट-पुष्ट हिरण मृगीको ढूँढ़ता हुआ आया। व्याधके बाण चढ़ानेपर पुनः कुछ जल-बिल्वपत्र लिङ्गपर गिरे। अब तीसरे प्रहरकी पूजा भी हो गयी। मृगने आवाजसे चौंककर व्याधकी ओर देखा और पूछा- क्या करते हो? व्याधने कहा- तुम्हारा वध करूँगा, हरिणने कहा- मेरे बच्चे भूखे हैं। मैं बच्चोंको उनकी माताको सौंपकर तथा उनको धैर्य बँधाकर शीघ्र ही यहाँ लौट आऊँगा। व्याध बोला-जो-जो यहाँ आये वे सब तुम्हारी ही तरह बातें तथा प्रतिज्ञा कर चले गये, परंतु अभीतक नहीं लौटे। शपथ खानेपर उसने हिरणको भी छोड़ दिया। मृग-मृगी सब अपने स्थानपर मिले। तीनों प्रतिज्ञाबद्ध थे, अतः तीनों जानेके लिये हठ करने लगे। अतः उन्होंने बच्चोंको अपने पड़ोसियोंको सौंप दिया और तीनों चल दिये। उन्हें जाते देख बच्चे भी भागकर पीछे-पीछे चले आये। उन सबको एक साथ आया देख व्याधको अति हर्ष हुआ। उसने तरकशसे बाण खींचा जिससे पुनः जल-बिल्वपत्र शिवलिङ्गपर गिर पड़े। इस प्रकार चौथे प्रहरकी पूजा भी सम्पन्न हो गयी।
रात्रिभर शिकारकी चिन्तामें व्याध निर्जल, भोजनरहित जागरण करता रहा। शिवजीका रञ्चमात्र भी चिन्तन नहीं किया। चारों प्रहरकी पूजा अनजानेमें स्वतः ही हो गयी। उस दिन महाशिवरात्रि थी। जिसके प्रभावसे व्याधके सम्पूर्ण पाप तत्काल भस्म हो गये।
इतनेमें ही मृग और दोनों मृगियाँ बोल उठे-व्याध- शिरोमणे ! शीघ्र कृपाकर हमारे शरीरोंको सार्थक करो और अपने कुटुम्ब-बच्चोंको तृप्त करो। व्याधको बड़ा विस्मय हुआ। ये मृग ज्ञानहीन पशु होनेपर भी धन्यहैं, परोपकारी हैं और प्रतिज्ञापालक हैं मैं मनुष्य होकर भी जीवनभर
हिंसा, हत्या और पाप कर अपने कुटुम्बका पालन करता रहा। मैंने जीव-हत्या कर उदरपूर्ति की, अतः मेरे जीवनको धिक्कार है! धिक्कार है !! व्याधने बाणको रोक लिया और कहा- श्रेष्ठ मृगो ! तुम सब जाओ। तुम्हारा जीवन धन्य है! व्याधके ऐसा कहनेपर तुरंत भगवान् शङ्कर लिङ्गसे प्रकट हो गये और उसके शरीरको स्पर्श कर प्रेमसे कहा- वर माँगो। ‘मैंने सब कुछ पा लिया’- यह कहते हुए व्याध उनके चरणोंमें गिर पड़ा। श्रीशिवजीने प्रसन्न होकर उसका ‘गुह’ नाम रख दिया और वरदान दिया कि भगवान् राम एक दिन अवश्य ही तुम्हारे घर पधारेंगे और तुम्हारे साथ मित्रता करेंगे। तुम मोक्ष प्राप्त करोगे। वही व्याध श्रृंगवेरपुरमें निषादराज
‘गुह’ बना, जिसने भगवान् रामका आतिथ्य किया। वे सब मृग भगवान् शङ्करका दर्शन कर मृगयोनिसे मुक्त हो गये। शाप मुक्त हो विमानसे दिव्य धामको चले गये। तबसे अर्बुद पर्वतपर भगवान् शिव व्याधेश्वरके नामसे प्रसिद्ध हुए। दर्शन-पूजन करनेपर वे तत्काल मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं।
यह महाशिवरात्रिव्रत ‘व्रतराज’ के नामसे विख्यात है। यह शिवरात्रि यमराजके शासनको मिटानेवाली है और शिवलोकको देनेवाली है। शास्त्रोक्त विधिसे जो इसका जागरणसहित उपवास करेंगे उन्हें मोक्षकी प्राप्ति होगी। शिवरात्रिके समान पाप और भय मिटानेवाला दूसरा व्रत नहीं है। इसके करनेमात्रसे सब पापोंका क्षय हो जाता है।
(शिवपुराण)